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मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा
तेरहवां अध्याय - शोकदायक घटना
पेज- 86
यह कहकर वह कपड़े उतारने लगे। मगर पूर्णा वही खड़ी रही जैसे कोई चौंकी हुई हरिणी। उसकी ऑंखें दरवाज़े की तरफ लगी थीं। अचानक उसको किसी मनुष्य की परछाई दरवाज़े के सामने दिखायी पड़ी। और वह बिजली की राह चमककर दरवाजा रोककर खड़ी हो गयी। देखा तो कहार था। जूता खोलने आ रहा था। बाबू साहब न ध्यान से देखा तो पूर्णा कुछ घबरायी हुई दिखायी दी। बोले---प्यारी, आज तुम कुछ घबरायी हुई हो।
पूर्णा—सामनेवाला दरवाजा बन्द करा दो।
अमृतराय—गरमी हो रही हैं। हवा रुक जाएगी।
पूर्णा—यहॉँ न बैठने दूँगी। ऊपर चलो।
अमृतराय—क्यों बात क्या है? डरने की कोई वजह नहीं।
पूर्णा—मेरा जी यहॉँ नहीं लगता। ऊपर चलो। वहॉँ चॉँदनी में खूब ठंडी हवा आ रही होगी।
अमृतराय मन में बहुत सी बातें सोचते-सोचते पूर्णा के साथ कोठे पर गये। खुली हुई छत थी। कुर्सियॉँ धरी हुई थी। नौ बजे रात का समय, चैत्र के दिन, चॉँदनी खूब छिटकी हुई, मन्द-मन्द शीतल वायु चल रही थी। बगीचे के हरे-भरे वृक्ष धीरे-धीरे झूम-झूम कर अति शोभायमान हो रहे थे। जान पड़ता था कि आकाश ने ओस की पतली हलकी चादर सब चीजों पर डाल दी है। दूर-दूर के धुँधले-धुँधले पेड़ ऐसे मनोहर मालूम होते है मानो वह देवताओं के रमण करने के स्थान हैं। या वह उस तपोवन के वृक्ष हैं जिनकी छाया में शकुन्तला और उसकी सखियॉँ भ्रमण किया करती थीं और जहॉँ उस सुन्दरी ने अपने जान के अधार राजा दुष्यन्त को कमल के पत्ते पर प्रेम-पाती लिखी थी।
पूर्णा और अमृतराय कुर्सिया पर बैठ गये। ऐसे सुखदाय एकांत में चन्द्रमा की किरणों ने उनके दिलों पर आक्रमण करना शुरु किया। अमृतराय ने पूर्णा के रसीले अधर चूमकर कहा—आज कैसी सुहावनी चाँदनी है।
पूर्णा—मेरी जी इस घड़ी चाहत है कि मैं चिड़िया होती।
अमृतराय—तो क्या करतीं।
पूर्णा—तो उड़कर उन दूरवाले पेड़ों पर जा बैठती।
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