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मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा
तेरहवां अध्याय - शोकदायक घटना
पेज- 87
अमृतराय—अहा हा देखा लक्ष्मी कैसा अलाप रही है।
पूर्णा—लक्ष्मी का-सा गाना मैंने कहीं नहीं सुना। कोयला की तरह कूकती है।
सुनो कौन गीत है। सुना
मोरी सुधि जनि बिसरैहो, महराज।
अमृतराय—जी चाहता है, उसे यहीं बुला लूँ।
पूर्णा- नहीं। यहॉँ गाते लजायेगी। सुनो।
इतनी विनय मैं तुमसे करत हौं
दिन-दिन स्नेह बढ़ैयो महराज।
अमृतराय—हाय जी बेचैन हुआ जाता है।
पूर्णा---जैसे कोई कलेजे में बैठा चुटकियॉँ ले रहा हो। कान लगाओ, कुछ सुना, कहती है।
मैं मधुमाती अरज करत हूँ
नित दिन पत्तिया पठैयो, महराज
अमृतराय—कोई प्रेम—रस की माती अपने सजन से कह रही है।
पूर्णा—कहती है नित दिन पत्तिया पठैयो, महराज हाय बेचारी प्रेम में डूबी हुई है।
अमृतराय---चुप हो गयी। अब वह सन्नटा कैसा मनोहर मालूम होता है।
पूर्णा---प्रेमा भी बहुत अच्छा गाती थी। मगर नहीं।
प्रेमा का नाम जबान पर आते ही पूर्णा यक़ायक चौंक पड़ी और अमृतराय के गले में हाथ डालकर बोली—क्यों प्यारे तुम उन गड़बड़ी के दिनों में हमारे घर जाते थे तो अपने साथ क्या ले जाया करते थे।
अमृतराय—(आश्चर्य से) क्यों? किसलिए पूछती हो?
पूर्णा—यों ही ध्यान आ गया।
अमृतराय—अंग्रेजी तमंचा था। उसे पिस्तौला कहते है।
पूर्णा—भला किसी आदमी के पिस्तौल की गोली लगे तो क्या हो।
अमृतराय—तुरंत मर जाए।
पूर्णा—मैं चलाना सीखूँ तो आ जाए।
अमृतराय—तुम पिस्तौल चलाना सीखकर क्या करोगी? (मुसकराकर) क्या नैनों की कटारी कुछ कम है? इस दम यही जी चाहता है कि तुमको कलेजा में रख लूँ।
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