मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा

तेरहवां अध्याय - शोकदायक घटना

पेज- 88

पूर्णा—(हाथ जोड़कर) मेरी तुमसे यही विनय है—
मेरा सुधि जनि बिसरैहो, महाराज
यह कहते-कहते पूर्णा की ऑंखों में नीर भर आया। अमृतराय। अमृतराय भी गदगद स्वर हो गये और उसको खूब भेंच-भेंच प्यार किया, इतने में बिल्लो ने आकर कहा—चलिए रसोई तैयार है।
अमृतराय तो उधर भोजन पाने गये और पूर्णा ने इनकी अलमारी खोलकर पिस्तौल निकाल ली और उसे उलट-पुलट कर गौर से देखने लगी। जब अमृतराय अपने दोनों मित्रों के साथ भोजन पाकर लौटे और पूर्णा को पिस्तौल लिये देखा तो जीवननाथ ने मुसकराकर पूछा—क्यों भाभी, आज किसका शिकार होगा?
पूर्णा-इसे कैसे छोड़ते है, मेरे तो समझ ही में नहीं आत।
ज़ीवननाथ—लाओ मैं बता दूँ।
यह कहकर ज़ीवननाथ ने पिस्तौल हाथ में लीं। उसमें गोली भरी और बरामदे में आये और एक पेड़ के तने में निशान लगा कर दो-तीन फ़ायर किये। अब पूर्णा ने पिस्तैल हाथ में ली। गोली भरी और निशाना लगाकर दागा, मगर ठीक न पड़ा। दूसरा फ़ायर फिर किया। अब की निशाना ठीक बैठा। तीसरा फ़ायर किया। वह भी ठीक। पिस्तौल रख दी और मुसकराते हुए अन्दर चली गयी। अमृतराय ने पिस्तौल उठा लिया और जीवननाथ से बोले—कुछ समझ में नहीं आता कि आज इनको पिस्तौल की धुन क्यों सवार है।
जीवननाथ—पिस्तौल रक्ख देख के छोड़ने की जी चाहा होगा।
अमृतराय—नहीं,आज जब से मैं आया हूँ,कुछ घबरया हुआ देख रहा हूँ।
जीवननाथ—आपने कुछ पूछा नहीं।
अमृतराय—पूछा तो बहूत मगर जब कुछ बतलायें भी, हूँ-हॉँ कर के टाल गई।
जीवननाथ—किसी किताब में पिस्तौल की लड़ाई पढ़ी  होगी। और क्या?
प्राणनाथ—यही मैं भी समझता हूँ।
जीवननाथ—सिवाय इसके और हों ही क्या सकता है?

 

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