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प्रियवदंबा

सौरभ कुमार

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उन अश्कों के लिए जो कभी उन आंखों में छलके

प्रियवदंबा

(गांगेय: अम्बा से प्रियवदंबा तक)

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आंद्रेय आर्द्र आया तो था दिल्ली में रंगमंच के लिए पर वह प्रियांका के साथ वह संगीत में चला आया। वह गायकी के मुकाबले ड्रम के लय में खोता चला गया। लेकिन इस खोने के भाव ने उसे अपने भीतर की तलाश, अपने भीतर की प्यास से मिला दिया। प्रियांका के साथ रहकर वह लय में बधी जिंदगी से निकल कर प्रियांका के सुर की दुनिया में चला आया। लय अच्छे हैं पर वे संपूर्ण नहीं है। आदमी खुद को जितना सुर के भीतर खोज पाता है उतना सिर्फ लय में नहीं खोज पाता। जब तक वह प्रियांका के पास नहीं होता वह प्रियांका के पास चला जाता है। लेकिन आजकल उसे लगता है कि आकर्षण प्रियांका के भीतर से है परंतु वह संपूर्ण रूप से प्रियांका के पास हीं नहीं है। लेकिन वह प्रियांका के बाहर अनुभव नहीं करता। रॉक के सुर के भीतर उसे एक शांत पिपासा के सुर की ध्वनि गूंजने का उसे अहसास होता है। ऐसा भी कहा जाता है कि आजकल वह हवाईयन गिटार के सुर को सुनने जाने लगा है। प्रियांका आंद्रेय के इस भीतर के बदलाव को अहसास कर चुकी है, अब ना तो वह सामान्य मित्र हीं रहा है, वह उसे ज्यादा समय देने लगा है। लेकिन यह बढ़ी हुई नजदीकि कहीं न कहीं उसके पास हीं खिंचाव को भी लिए हुए है। लेकिन इन सबके बावजूद भी प्रियांका भी एक समीपता का अनुभव करने लगी है।

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प्रियांका और आंद्रेय तो ट्रूप के साथ कोलकाता चले थे प्रियांका के कॉन्सर्ट के लिए लेकिन ना जाने शिव की नगरी काशी के वातावरण ने क्या प्रभाव डाला आंद्रेय प्रियांका के साथ आगे नहीं जा सका। सुबह के साढ़े चार बजे हुए थे, अस्पष्ट से ध्वनि कहीं से आ रहे थे और वह शिव के सामने निस्तब्ध खड़ा था। काशी धर्म नगरी कहीं जाती है। लेकिन अपनी तंग गलियों में ना जाने कितने फैलाव को समेटे हुए है। जहाँ दिल्ली के वातावरण में सुबह देर से उठना हीं सामान्य है। जहाँ किसी के लिए देर सुबह हीं घर से निकलना सामान्य था वही आज वह अपने घर के शिव से बाहर निकल कर सात साल के व्रत को पूरा कर वह आम्रफल को भभूत से लपेट कर विश्वनाथ को अर्पित करने क्रीम कलर में अपने खुले गीले बालों के साथ आई हुई थी। चेहरे की उखड़े हुए आभिजात्य के साथ उसके प्रवेश ने शिव की छवि की तरह हीं उसे भीतर से आंदोलित कर दिया। प्रियवदंबा आकर चली गयी थी। उसने एक निगाह डाली और वह शांत रूप से पूजा कर चली गयी। आंद्रेय खड़ा रह गया। काफी देर तक वह वहीं खड़ा रह गया। कुछ देर बाद हीं उसे अपने भीतर कुछ उतरने का अहसास हुआ।
वह अगले दिन फिर आया लेकिन प्रियवदंबा को न आना था न आई। वह आगे कोलकाता के लिए नहीं जा पाया। आम्रफल को भभूत में लपेटा जा सकता है इसने उसे अंतर तक चलायमान कर दिया। एक सप्ताह तक वह काशी की गलियों में घूमने के बाद भी वह प्रियवदंबा के सत्य के तरफ खींचा चला गया। वह समझ नहीं पाता है समय क्यूँ ठहरा हुआ उसे लगता है। जो खींचाव उसे प्रियांका के पास ले जाते थी वही उसे क्यूँ उसे उस क्रीम कलर में खुले बालों के पास पहुँचा देता है। उसे इस रूप में प्रियांका की छवि और प्रियांका में प्रियवदंबा की छवि दिखाई पड़ती है।

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एक सप्ताह तक काशी की प्राचीन गलियों में घूमने के बाद वह यही समझ पाया कि उसका इन गलियों और प्रियवदंबा से एक रिश्ता जरूर है। श्मशान के भभूत ने उसे श्मशान के कई चक्कर जरूर लगवा दिए। उसे शव के न जलते रहने पर भी एक जिंदा शव के जलने की अनुभूति जरूर जाग गई थी। प्रियवदंबा के सामाजिक परंतु नीरव एकांत जीवन में उसे प्रियवदंबा के बंगले के सामने जरूर ला दिया। जितना हीं वह प्रियांका के बारे में सोचता उतना हीं वह प्रियवदंबा के निकट चला जाता। आज वह अपने विगलित अहं के साथ प्रियवदंबा के सामने खड़ा था। प्रियवदंबा को मंदिर में देखना अलग था। आज वे दोनों आमने सामने थे। वह खड़ा था और उसके भीतर कुछ घूमने लगा था जिसे वह स्पष्ट नहीं समझ पाया। वह इतना हीं समझ पाया जैसे वह खुद को ठुकराये जाने के लिए एक खींचाव का अनुभव कर रहा है। एक अहसास तो प्रियवदंबा के भीतर के अंबा के में जाग चुका था जिसे वो चाह कर भी इगनोर नहीं कर सकती। दोनों को सम्हलने में वक्त लगा लेकिन तब तक प्रियवदंबा श्मशानवासी शिव के सामने जा चुकी थी।
आंद्रेय लौट चुका था, लेकिन जिस तरह शाम के श्याम बादल बरसने के लिए हवा के साथ बढ़ने लगे वैसे वैसे वह स्तब्ध प्रियवदंबा की तरफ जा चुका था। उसे जब समझ आया तबतक खुले दरवाजे के सामने  प्रियवदंबा उसके आगे खड़ी थी। उसने आंद्रेय से मिलने से इंकार कर दिया। उसने आंद्रेय के विषण्ण आँख में लिखे संदेश को पढ़ लिया था। जब दृढ़ गंभीर चेहरे के साथ प्रियवदंबा दरवाजे को बंद करने के लिए आगे बढ़ी तो आंद्रेय को बिना कुछ कहे हीं सारी बात कहने और उसका जवाब पाकर दरवाजे से बाहर जाना पड़ा।
वह बाहर तो निकला पर प्रियवदंबा से बाहर नहीं निकल पाया। जिस तरह सारे प्रश्नों और प्रयत्न का त्याग कर बुद्ध अश्वत्थ वृक्ष के नीचे बैठ गये थे वैसे हीं बारहमासी आम्र के मंजर से लदे छोटे छोटे फल को लिए वृक्ष के नीचे आंद्रेय भी बैठ चुका था। आज वह भींगने के गहरे प्यास लिए बैठा था। अगर आंद्रेय बाहर पानी के थपेड़े में भीग रहा था तो खिड़की से सटे बिछावन पर अंधेरे में वह अपने भीतर चल रही बिजली में भींग चुकी थी। जब आंद्रेय भींगते रहने के बाद भी नहीं हटा तो प्रियवदंबा विचलित हो चुकी थी। यह कहना मुश्किल है उस दिन काशी में बादल से बिजली ज्यादा गिरी या प्रियवदंबा के भीतर ज्यादा बिजली चमकती रही। अगर खंभों के तारों ने बिजली को धरती में न लिया होता तो यह कह पाना मुश्किल होता कि आंद्रेय क्या उन बिजली से बच पाता। वह व्योमकेश के चरणों में ध्यान में जा बैठी थी। जिस ललाट के मध्य में वह पूरे दिन एक दबाव अनुभव कर रही थी उसने जल्द हीं उसे ध्यान में सारे सत्य को सतह पर ला दिया। सत्य उसके सामने था। उसे विरक्ति भी नहीं हुई परंतु एक तीव्र असंगता ने उसके भीतर एक जगह बना ली। उसके सामने अब गांगेय और आंद्रेय दोनों का सत्य सामने था।

पानी में सिर्फ आंद्रेय का शरीर हीं नहीं धुला सत्य भी धुल कर उसके सामने खड़ा हो चुका था।

 

 

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