उन अश्कों के लिए जो कभी उन आंखों में छलके प्रियवदंबा (गांगेय: अम्बा से प्रियवदंबा तक) पेज 9 अगले दिन स्वर्ग के देवता इन्द्र के मित्र राजा भगदत्त को अर्जुन को उलझाने की जिम्मेदारी दी गई। द्रोण ने चक्रव्यूह की रचना की। अभिमन्यु चक्रव्यूह में प्रवेश कर युद्धिष्ठिर को बंदी होन से तो बचा लिया। परंतु खुद को व्यूह के चक्र में उलझने से नहीं बचा पाया। ऐसा नहीं है कि वह अकेले चक्रव्यूह में घुसने से मारा गया। अकेले होने पर सम्मिलित आक्रमण के कारण भी वह नहीं मारा गया। अर्जुन, कृष्ण, भीष्म, द्रोण अकेले हीं चक्रव्यूह को तोड़ने में सक्षम थे। चक्रव्यूह में जब आक्रमण होता है तो यह एक लय का रूप ले लेता है। उस लय को तोड़ कर नहीं तोड़ा जा सकता। उस लय को तादात्मय कर हीं तोड़ा जा सकता है जैसे सम आने पर खुद हीं पहले हीं उसे पकड़ लिया जाए या अपने जीवन के मोह से ऊपर उठ कर आक्रमण किया जाए। जब अपने प्राण की नहीं बल्कि उन्हें हीं अपने प्राण की चिंता करनी पड़े। तब दुश्मन अचंभित होता है और आक्रमण का वह लय टूट जाता है। अभिमन्यु अर्जुन के द्वारा सुभद्रा के गर्भ में रहते हुए चक्रव्यूह के बारे में जाना था। परंतु वह आखिरी चक्र के तोड़े जाने का रहस्य नहीं प्राप्त कर पाया था।
23. यह कितनों का सौभाग्य होता है कि खुद वासुदेव कृष्ण उसके अंतिम क्षण पर दर्शन दे रहे हों। जिस अंतिम स्मृति के लिए वृत्तियों से निवृत्त होकर पूरी जिंदगी जी जाती है वे हीं अंत समय में आश्वासन दे रहे हों। वो हीं विदाई दे रहे हों या स्वागत भी वही कर रहे हों। जब परिणाम हमारे नैतिक निर्णय का आधार नहीं होता। हमारी अंत:प्रेरणा हीं मूल्यांकन की कसौटी बनता है, तब अगर गांगेय अपने निर्दोष अंत:प्रेरणा से भागवत लोक का अधिकारी बना तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए। दूसरों के अपराधों का गांगेय को उत्तरदायी तो बनाया जाता है परंतु गांगेय के निर्देशों के अवहेलना का हिसाब कहाँ किया जाता है। अपनी एकाकी पीड़ा लिए जब आत्मा का प्रवेश लिए बृहत्त आत्मलोक में जाता है तो रौशनी और वीणा के नाद में सारे विषाद को खो बैठता है। अपने प्रेम के प्रति ग्रंथि से निकल जाता है। कृष्ण के आत्मा में प्रवेश उसे अथाह करूणा से भर देता है। कृष्ण के प्रेम में निमग्न वह उस नाद के द्वार में जाता है जहाँ भगवती शक्ति नाद और लय की रचना से घिरी हैं। आत्मा को एक क्षण भगवती दुर्गा की झलक मिल जाती है जहाँ वीणा की ध्वनि भी एक कृष्ण की भगवती के प्रति समर्पण की गहरी आमंत्रण बन जाती है और उसे वहाँ अम्बा की स्मित लिए छवि मिलने लगती है। गांगेय को करूणा, प्रेम और आनंद का भाव अम्बा के प्रति संकल्प में मिल जाता है। जहाँ संपूर्ण अस्तित्व हीं सत, चित्त और आनंद हो वहाँ बिना आनंद के यह कहानी पूरी नहीं हो सकती है भले हीं उसके सामने भगवती हीं मुक्ति लिए हुए हों। वहाँ सिर्फ प्रश्न नैतिक निर्णय में अंत:प्रेरणा का नहीं रह जाता परिणाम का हो जाता है। वह अम्बा के जीवन के आनंद के हरण का उत्तरदायी तो था हीं। गांगेय की मृत्यु ने भले हीं अम्बा या शिखण्डी को तात्कालिक मुक्ति दी हो परंतु यह तो निश्चित था कि उसे शान्ति उपलब्ध नहीं हो पाई थी। वह जानता था अम्बा उसे स्वीकार नहीं कर पायेगी। परंतु अब वह अम्बा के आत्मा के पीछे जाएगा। अगर उसने स्वीकार कर लिया तो उसे उसके कई जन्मों से न मिलने वाला प्रेम मिल जाएगा। या जिस ठुकराहट का दंश उसने पाया है उसी तरह से गांगेय भी उस से ठुकराया जाएगा। अंबा की आत्मा त्यक्ता नहीं त्याग करने वाला भी बन जाएगा। 24. आजकल काशी में लास्य की धूम मची कही जा रही है। मानो शिव का वैराग्य हीं सौन्दर्य धारण कर आ गया हो। काशी के घाट एक तरफ जहाँ श्मशान की महाशांति लिए बैठे हों वहाँ प्रियवदंबा की कला भी उसी रंगमंच पर भास्वर हो उठी थी। जहाँ कालेज के दिनों में उसके पास लड़कों का जमघट तो लगा पर प्रियवदंबा के प्रियवदंबा के नाम को कोई ले नहीं पाया। एक सौम्य हीं उस नाम में डूब कर ले पाया। लेकिन वह भी विलंब के साथ। इसलिए वह उसके साथ तो रह गया। उसे उसके साथ रहने का अधिकार मिल गया पर सिर्फ साथ रहने का हीं। वह भी उसके अशांत मन का साथी नहीं बन पाया। वह अशांत मन जब रंगमंच पर उतरा तो विद्युत बन कर चेतना में छा गया। एक बिजनेस एम्पायर की इकलौती मलिका शाम के बाद अपने बिजनेस से बिल्कुल अलग हो जाती है। अगर एक मलिका के अनुरूप वह नीले सूट में खुले बालों के साथ सोफे पर दृढ़ता की कसौटि होती थी तो उसके बाद वह सिवाय श्वेत वस्त्रों के अलावे वह कभी किसी को नहीं दिखी। कहते हैं उसके बंगले में आठ बजने के बाद किसी का भी प्रवेश वर्जित है। उसकी परिचारिकाएं भी उसके कमरे में नहीं जा सकती। कहते हैं उसके सिरहाने हीं शिव की मूर्ति है जो आज भी सती के चिता की राख समेटे है। प्रियवदंबा उस शिव को आज भी श्मसान के भभूत का महाप्रसाद जरूर चढ़ाती है। आज भी उसके ललाट पर वही भभूत प्रसाद बन कर चढ़ा करता है। जब रात गहराती है तो प्रियवदंबा के पायल सिन्थेसाइजर के लय पर शिव के सामने शिव का वैराग्य के रूप में नाच उठते है। जब प्रकृति राग ललित के स्वर में अधूरे प्रेम और आध्यात्मिक प्यास को स्वर देता है तो वह पसीने से लथपथ होकर पिंड की ऊर्जा को ब्रह्मांडीय ऊर्जा से मिलाने शिव के ध्यान में उतरती है। कहा तो यह भी जाता है कि वह आजकल ताई ची का भी अभ्यास कर रही है। कलिंगरा, रामकली, भैरव और भैरवी बिना सुर दिए उसके जिंदगी से गुजर जाते हैं। वह बिना बारह बजे से पहले अपने सबसे ऊपरके माले के दफ्तर में नहीं आती है। सीसे के दरवाजे से रास्ते में दुनिया को भागते देख कर वह आज भी इस भागदौड़ को नहीं समझ पाती।
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