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प्रियवदंबा

सौरभ कुमार

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उन अश्कों के लिए जो कभी उन आंखों में छलके

प्रियवदंबा

(गांगेय: अम्बा से प्रियवदंबा तक)

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ईश्वर सत्य है। परंतु ईश्वर के संपूर्ण सत्य को मानव कहाँ सहेज पाता है। वह अपने आयत्त सत्य को हीं ईश्वर के रूप में स्वीकार कर पाता है। तब उसके लिए उसका सत्य या कहें कि सत्य हीं ईश्वर होता है। अपने सत्य के ईश्वर को लिए अम्बा महारानी सत्यवती के सामने खड़ी हो गई। समझाया उन्हें जा सकता है जो क्षणों जीते हैं। जो सत्य का रूप लेकर जीते हैं उन्हें हिलाया नहीं जा सकता। शुरू में अम्बा के सत्यकथन ने अम्बा को प्रसन्न किया। अम्बा के विचित्रवीर्य के महारानी न बनने के निश्चय ने सत्यवती को नियति के प्रति गुप्त आशंका से भर दिया। अम्बा को अभी यह लौकिक ज्ञान नही था कि सत्य का आग्रह किन रास्तों से जिंदगी को ले जाती है। और शायद अहसास के बाद भी वह किंचित रास्ता बदलती। अम्बा भारत के सबसे बड़े साम्राज्य को ठुकराकर सत्य के रास्ते पर चल पड़ी।
गांगेय को सत्य जानने के बाद अम्बा को हस्तिनापुर की राजकुमारी की तरह मार्तिकावत के राजा शाल्व के पास भेजने का निर्णय हीं उचित लगा। काशीराज जितने उपहार दे सकते थे उसके दसगुणा उपहार देने का प्रस्ताव उन्होंने महारानी सत्यवती को दिया। अम्बिका तथा अम्बालिका के द्वारा विचित्रवीर्य से विवाह की स्वीकृति ने हस्तिनापुर को थोड़ी राहत जरूर दिया।

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गांगेय के मार्तिकावत के राजा शाल्व के प्रति अपराधबोध को लिए तरल अनुरोध के साथ, हस्तिनापुर की राजकुमारी की गरिमा लिए अम्बा अपने प्रेम की तरफ चल पड़ी। स्वाभिमान अच्छी चीज है। परंतु इससे बड़ी बुरी वस्तु भी कोई और गुण नहीं है। हमारे और हमारे प्रेम के बीच इससे बड़ी अवरोध भी कोई नहीं है। शाल्व अपना पराजय भूला नहीं था। स्वाभिमान का दर्प पराजय के साथ मिलकर देखने की दृष्टि को और भी धूमिल कर देता है। हम लाख कहें प्रेम हीं ईश्वर है। पर ईश्वर भी कहाँ काम आ पाता है जब तक विश्वास न हो। विश्वास हीं ईश्वर को हमारे लिए ईश्वर बनाता है। बिना प्रिय पर विश्वास के प्रेम का ईश्वर कूच कर जाता है। शाल्व के राजापन के अविश्वास ने राजकुमारी अम्बा को राजाधिकारियों के बिसात पर बिना आधार का एक स्वतंत्र चलने वाला लक्ष्यहीन मोहरा बना दिया।
अम्बा टूटे प्रेम या टूटे विश्वास लिए पुन: हस्तिनापुर पहुँच गई। विचित्रवीर्य के लिए अम्बा के शाल्व के प्रति प्रेम ने एक ग्रंथि पैदा कर दिया। अपने समय की सर्वश्रेष्ठ राजकुमारी एक कटी पतंग की तरह आसमान की सबसे ऊँची बुलंदी से कठोर धरती की नियति के तरफ बढ़ने लगी। शाल्व और विचित्रवीर्य के ठुकराहट ने अम्बा के लिए गांगेय के अपार गहराई में ही आधार ढूंढना शुरू कर दिया। कई बार अपने विरोधी में हीं वह संभावना नजर आती है जो रास्ता बना सकती है। ऐसा इसलिए नहीं कि वो विरोधी है या आततायी बल्कि इस लिए क्योंकि उसमें एक दृढ़ता है जो ढुलमुल पन से दूर है। इसके बिना आततायी आततायी है। उसकी स्थिति में परिष्कार असंभव है।
गांगेय ने अम्बा को अपने दुल्हन बनने से नहीं ठुकराया। उसके लिए न तो शाल्व की तरह कुंठा अपने प्रेम के प्रति हुई। न विचित्रवीर्य की तरह शाल्व के प्रति प्रेम को लेकर हुई। अपनी ठंढ़ी निगाहों से गांगेय ने अपनी प्रतिज्ञा के सत्य के लिए खुद को अम्बा के लिए इंकार कर दिया। अम्बा ठंढ़ी निगाहों के विषण्ण संदेश को बर्दाश्त नहीं कर पायी।


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एक फलहीन जिदंगी को लिए अम्बा नाना होत्रवाहन के पास हिमालय चल आई। अब उसके लिए गांगेय को अपने लिए झुकाना या अपने लिए गांगेय की मृत्यु ही उसकी स्त्रीत्व की या उसके अस्तित्व की सार्थकता बन गई। गांगेय की निगाह की विषण्णता ने अम्बा को कुछ और भी सोच सकने से वंचित कर दिया। अम्बा अगर अपने गुण और सौंदर्य के कारण सर्वश्रेष्ठ थी तो अपने सबल दृढ़ता के कारण भी सर्वश्रेष्ठ थी। जल्द हीं वह हिमालय की शांत और ठंढ़ी वातावरण से ऊब गई। उसके भीतर की ज्वाला ने उसे उद्विग्न कर दिया। वह अपने नाना के कुलगुरू महाअथर्वण जाबालि के आश्रम में चली आई। अब उसके भीतर एक हीं आवाज रह गई थी। या तो उसके जीवन को बर्बाद करने वाला गांगेय खुद उस से विवाह करे या गांगेय उसके जीवन को बर्बाद करने के फलस्वरूप  मृत्यु को प्राप्त हो। महाअथर्वण जाबालि चौथे वेद अथर्ववेद को महत्व देने वाले परंपरा के थे। वे महर्षि भृगु के शिष्य परंपरा में थे। स्वंय भगवान कहलाने वाले परशुराम भृगुवंशी थे। खुद गांगेय भी भगवानपरशुराम के शिष्य थे। अम्बा ने जाबालि के गांगेय पर मारण अभिचार को अस्वीकार कर दिया। उसने भगवानपरशुराम के आने और उनसे हीं न्याय करने का निश्चय लिया।

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परशुराम अपने नाम के अनुरूप ही निर्णय करने वाले थे। उन्हे इस निष्कर्ष पर पहुँचने में देरी नहीं लगा कि अम्बा निश्चय हीं अन्याय की शिकार हुई है। वे गांगेय के वसु होने वाले स्वभाव को जानते थे। वे जानते थे एक बार संकल्प कर लेने पर वह रास्ता नहीं बदलेगा। ना हीं वह व्यक्तिगत रूप से जीवन के प्रति उत्साही रह गया है। वे अगर गांगेय के युद्धकला के भी गुरू थे तो परंपरा से होत्रवाहन के भी गुरू थे। उन्होंने सीधा संदेश गांगेय को दिया कि या तो वह अम्बा को स्वीकार कर ले या उनसे युद्ध करे।
स्वाभिमान सिर्फ दूसरों की हीं दृष्टि को धूमिल नहीं करता। यह अक्सर हमें बाँध देता है। ये बंधन हमें मुक्त नहीं होने देता। जो बंधन कर्त्तव्य से लगाए वह तो ठीक है पर जो आत्मा को हीं बाँध ले उसका क्या औचित्य है। जिस बंधन को स्वीकार कर तांत्रिक सिद्धि प्राप्त कर परशुराम भगवत्ता को प्राप्त हुए उसे सत्यवती और गुरू के समझाने पर भी वे अस्वीकार कर परशुराम के परशु आगे खड़े हो गए। अम्बा गांगेय के इस सहज मृत्यु के सामने समर्पण को स्वीकार नहीं कर पाई।
महाअथर्वण जाबालि का आश्रम गुरू शिष्य के बीच युद्ध का गवाह बन गया। सत्यवती के गांगेय के जीवन के प्रति आकुलता ने राजगद्दी के प्रति समर्पण की प्रतिज्ञा से गांगेय को भर दिया। इतिहास का पहला शिष्य गांगेय बन गया जो गुरू से सीख कर गुरू पर हीं शिव का महान पाशुपतास्त्र चलाने का संधान कर बैठा। गुरू के लौट जाने की आज्ञा लिए वह अपने होने की औचित्य के प्रति शंका से भर बैठा।
भगवती काली का मारण निवाला गांगेय बनने से तो बच गया। परंतु उसके बचने ने अम्बा को परशुराम के सहमति से अग्नि में प्रवेश की अनुमति दिला दी। इधर विचित्रवीर्य इन घटनाओं में मूल कारण होने के कारण किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो चला था। गांगेय के अपने होने के प्रति आश्वासन के बावजूद एक आशंका से वह भर उठा था। विचित्रवीर्य के राजमहल के सीढी से गिरने की खबर ने होत्रवाहन के आश्रम में हीं सभी को अज्ञात आशंका से भर दिया। लगा जैसे भगवती काली अपने भोग को लेने के लिए तैयारी कर चुकी हैं।

 

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