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प्रियवदंबा
सौरभ कुमार
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उन अश्कों के लिए जो कभी उन आंखों में छलके
प्रियवदंबा
(गांगेय: अम्बा से प्रियवदंबा तक)
पेज 7
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गांगेय ने अगर उन्हें गिराने का अपना रहस्य बताया था तो अपने कर्त्तव्य का समर्पण भी नहीं किया था। अगर अर्जुन शिखण्डी को आगे खड़ा कर बाणों की घनघोर वर्षा शुरू किए हुए था तो स्त्री पर प्रहार न करने की परंपरा लिए अर्जुन की दायीं ओर की सेना में कौरवों का प्रधान सेनापति खलबली मचाए हुए था। गांगेय ने अपने सामने की व्यूह पर तो प्रहार नहीं किया। लेकिन आसमान पर तीर चला कर उन लौटते तीरों से अपने आगे बाणों की दीवार बना कर वे लगातार दूसरे तरफ जरूर प्रलय मचाते रहे। उन तीरों को भेद कर शिखण्डी जरूर रास्ता बनाने में सफल होते और अर्जुन के बाण शत्रु प्रधान सेनापति के शरीर को भेद देते। अगर अर्जुन तीर की दीवार को भेद रहे थे तो खुद सेनापति द्रोणाचार्य उन्हीं दीवारों का प्रयोग शिखण्डी को भेदने और अर्जुन के व्यूह को ध्वस्त करने में लगे हुए थे।
नौ दिन के युद्ध में जितना गांगेय ने पाण्डवों का विनाश किए था मानों उतना विनाश करने का काल संकल्प लिए हुए आज वह संहार कर रहा था। अन्याय का पक्ष में खड़ा अपने सत्य लिए अगर वह काल बना प्रलय कर रहा था तो न्याय के पक्ष में खड़ा अपने सत्य को लिए उसका हीं रूप अभिमन्यु उसके पक्ष में शिव का तीसरा नेत्र खोले हुए उसके सामने खड़ा था।
शरीर के भेदे जाने के बाद भी प्रधान सेनापति का आक्रमण तेज होता जा रहा था। शरीर सारा तीर से भेदा जा चुका था। परंतु तीर से भेदे जाने से मौत नहीं होती, रक्त के निकल जाने से भी मौत नहीं होती, आत्मा के संकल्प के छोड़ देने से होती है। हस्तिनापुर की राजगद्दी से बंधा वह अपने संकल्प से नहीं डिगा था। अभिमन्यु के तीर ने अगर उसके बाएँ बाजू को अलग किया तो अर्जुन के तीरों ने उसे जोड़ भी दिया। गांगेय ने अपना प्रहार उसी बाजू से धनुष को पकड़ कर जारी रखा। अभिमन्यु ने अपने दाएँ पैर को जमीन से टिका कर अपने बाएँ पैर को ठेहुने से मोड़ कर अपने बांयी हाथा को सीधा रख कर धनुष को लंबवत हीं कर भीष्म के पैरों पर प्रहार शुरू किया। शरीर के संतुलन तो बिगड़ा पर चलायेमान रथ पर भी गांगेय अपना संतुलन बचाए रखने में कामयाब रहा।
ठीक मध्यहान का सूर्य जब हुआ तो तीर के पीछले भाग में सिर्फ दांयी तरफ के निकले पंख वाले तीर ने सहदेव के गालों पर खरोच का स्पर्श देकर निकल गया। माद्री पुत्र सहदेव ने देखा तो श्रीकृष्ण के मयूर पंख से चमक कर सूर्य की रौशनी उस के आंख से टकरा रहा था। सामने भगवती की मधुर साधना में डूबे आचार्य मुस्कुरा रहे थे। सहदेव काल देवता की गति को समझने वाला ज्ञानी था। वह आज सिर्फ खड़ा था और सिर्फ खड़ा था। वह वृद्ध कौटुंबिक के गिराने के रंगमंच पर खड़ा होकर भी मानो नेपथ्य में खड़ा था। मानो भीष्म को गिराने वाले क्षण को समय पर पकड़ने के लिए शांत खड़ा था। आचार्य द्रोण की हल्की स्मित से भरी आँखे अब भी कह रही हों जिंदगी में सबकुछ प्रेय हीं नहीं होता कई बार हम अपने समझ से श्रेय के लिए करते हैं। कर्म का फल सिर्फ उतना हीं नहीं होता जितना हम समझते हैं। यह ज्यादा गहरी चीज है। हमें अपनी समझ से करना होता है उसका अच्छा और बुरा फल जब मिले तो उसे सहज रूप से ले लेना चाहिए। द्रोण के लिए वह अब उतना हीं निर्दोष था जब वह अपने पिता और माता को खोकर जिंदगी के प्रश्न को सुलझाने के लिए उनके पास आया था। पितामह ने प्रेम के प्रश्न के लिए उसे आचार्य द्रोण के पास भेज दिया था। ज्येष्ठ तीन भाइयों के पास तो अब भी उनकी माता थी। परंतु वह तो जिंदगी को समझना चाहता था। वह उस प्रश्न को लिए था क्या प्यार इतना महत्वपूर्ण है जिसके लिए अपनी जान दे दी जा सके। अगर उसके पिता ने जानते हुए अपनी प्राण गवाँ दिए तो भी क्या वह प्रश्न इतना उपेक्षणीय है।
जो जिदंगी को देख कर समझ रहा है उसके प्रश्न का जबाब न देना शिक्षा को अधूरा कर देना है और द्रोण ने वही जबाब दिया जो द्रोण के गुरु ने उनसे कहा था।
आचार्य अगस्त अपने शिष्यों को जो मधुमती साधना के बारे में कहा करते थे, द्रोण को वही परशुराम ने सिखाया। कृष्ण सर्वश्रेष्ठ हैं। वे सर्वोच्च हैं। ब्राह्मण उनकी पूजा अहिंसक तरीके से करते हैं। लेकिन कृष्ण स्वयं भगवती की साधना करते हैं। उनका ध्यान मानों उनका स्मरण करना हीं है। वे उस दुर्गा शक्ति की उपासना करते हैं जो प्रेममयी हैं लेकिन जिसे कठिनता से समझा जा सकता है। वो जितना आनंदमयी हैं उतनी हीं सहज रूप से किसी भी रूप को लय कर लेती है। वो अपने श्वेत रूप में तेज लिए दाहिने ओर मुख किए हुए है। उसकी आंखे बड़ी हीं नहीं है अपितु बाहर की तरफ भी निकली हुई है जिससे मानों सभी क्षैतिज दिशाओं के अलावे सहज रूप में उच्च और निम्न लोकों को भी देख रही है। उसकी आंखे नींद से बोझिल हैं मानो वो सतत जागरण में हीं अपनी योगनिद्रा को पूरी कर लेती हों। उसकी बांयी भुजा में तानपुरा का नाद प्रवाहित है जिससे सृष्टि अस्तित्व पाता है। उसके अंगुलियों का विराम हीं सृष्टि का बिंदु रूप होकर प्रलय हो जाना है। उस सौन्दर्य राशि के निरंतर नाद में खोए क्षीर सागर में वे ध्यान में रहते हैं। जब वे भगवती के स्नेह में डूबे सिर्फ मुख के स्मित का ध्यान करते हैं और वे संप्रज्ञात से असंप्रज्ञात में चले जाते हैं तो न तो उन्हें लक्ष्मी के आने का पता होता है और न हीं उन्हें शेष नाग द्वारा उन पर छ्त्र दिए जाने का ज्ञान रहता है जिसके बाद उन्हें ब्रह्मांड के अधीश्वर होने की शक्ति मिलती हैं। कृष्ण को इसीलिए शक्ति के अनुकूल होकर न प्रेम करने में द्वंद्वं है और न हीं कुछ भी भगवती को समर्पित करने में संकोच है। दूसरों को समर्पित वही कर सकता है जो खुद को भी भगवती को समर्पित कर दिया हो। जो जानता है सिर्फ शुद्ध भाव होने से भगवती जिंदगी नहीं दे देती है। वह लेती भी है और लीला को आगे बढ़ा भी देती है। हम अक्सर राज्य के द्वारा शेर और बाघ को पाल कर उन्हें उनका भोज्य देकर हिंसा करते हैं। राज्य के नाम पर जीवन मांग कर हिंसा करते हैं अपने स्वार्थ के लिए हिंसा करते हैं पर भगवती के लिए नहीं देना चाहते। कृष्ण को संकोच नहीं है वे अगर शक्ति के विग्रह से प्रेम में समर्पण कर सकते हैं तो न्याय के लिए न्याय के मानदंड पर चल कर भगवती को उसका समर्पण दे सकते हैं।
सहदेव को समझने में देर नहीं लगी कि द्रोण उसके विपक्ष में होकर भी उसे अपने इस प्रेम में सघर्ष में भी भगवती की उसी मधुर साधना के सत्य को कह रहें हम अपनी बलि खुद हीं नहीं देते अपने कर्त्तव्य पर चलते हुए दूसरों की बलि रूप में खुद को भी स्वीकार करते हैं। गांगेय ने जब अर्जुन, अभिमन्यु और सहदेव को आक्रमण लिए देखा तो उन्हें यह अनुभव हो गया एक उनका वह रूप और तेज है जिसमें कभी उन्हें प्रेम का अहसास हुआ था। एक उनका वह रूप है जो प्यार को जीकर हो सकता था और एक वह रूप है जिस मधुमति का ज्ञान तो था परंतु जिसे वह नहीं जी पाये और वह जी रहा है। जिनके जीने के लिए अब वे रूकावट के चरम रूप पर जा चुके हैं।
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