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प्रियवदंबा

सौरभ कुमार

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उन अश्कों के लिए जो कभी उन आंखों में छलके

प्रियवदंबा

(गांगेय: अम्बा से प्रियवदंबा तक)

पेज 8

महाभारत काल का महान धनुर्धर अर्जुन सव्यसाची था। यही एक कला था जो गांगेय भी नहीं अपना पाया था। परंतु अपने पूरे जीवनकाल में सिर्फ दो बार हीं अर्जुन ने इसका प्रयोग किया था। पहली बार पांचाली द्रोपदी के लिए उसके स्वयंवर में और दूसरी बार पाण्डवों के जीत में पर्वत बने गांगेय पर अब करने जा रहा था। पांचाली के लिए कृष्ण ने धनुर्वेद की अद्वैती परीक्षा रखी थी। कृष्ण जानते थे पांचाल नरेश द्रुपद उन्हें हीं द्रौपदी के लिए चाहते है। कृष्ण ने उस परीक्षा का आयोजन किया जिसमें उनके गुण को समाहित कर हीं नियति से सफल हुआ जा सकता था। मछली के आँख को तीर से भेदना था। लेकिन उसे जल की परछाई में देखकर ऊपर सीसे पर लगे मछली की आँख पर लक्ष्य को पाना था। पानी की परछाई गहराई को आभासित करता है। प्रतिबिंबित नहीं करता। सीसा कहीं ज्यादा प्रतिबिंब बनाता है। जब एक सैलून में जाने पर दो सीसा दृश्य की एक श्रृंखला बना देता है। अर्जुन जब धनुष को लिए खुले आकाश पर अवलंबित लक्ष्य के लिए पानी के सरोवर के बीच में आधार पर खड़ा हुआ तो एक मछली के पानी में और सीसे में अनेक रूप को पाकर अवाक रह गया। यह शिक्षा तो उसने इस रूप में पाया हीं नहीं था। उसे इतना हीं याद रहा जब उसने शिक्षा लेते हुए चिड़िया की आंख को ल्क्ष्य भेद किया था। गुरु द्रोण ने उसे यही कहा था। ल्क्ष्य हमेशा द्वैत का गिर जाना होता है। जब मन के संशय और विकल्प गिर जाते हैं। ल्क्ष्य हीं ध्येय रूप होकर भागवत चिंतन बन जाए, तब तक रूक कर अपने को दैव पर छोड़कर जब लक्ष्य के प्रति खुद को छोड़ दिया जाए तब लक्ष्यभेद गति के अंतराल से नहीं होता बल्कि ल्क्ष्य के प्रति समर्पण से होता है। कृष्ण द्रौपदी के दक्षिण बैठे मंद स्मित के साथ थे। यज्ञ के तेज से उत्पन्न द्रौपदी के लिए यह स्वंयवर अगर कृष्ण ने रचा है तो यह सिर्फ विद्या का हीं परीक्षा नहीं है। यह स्त्री तेज के साथ पुरूष तेज की हीं परीक्षा नहीं है। यह पुरूष के सोम की, शीतलता की सांमजस्य की भी परीक्षा भी है। स्त्री अगर अबला की तरफ हो तो उसके साथ पुरूष का तेज हीं पर्याप्त था। स्त्री अगर लता हो तो  वृक्ष की कठोर परूषता की जरूरत होती है। परंतु अगर स्त्री भी तेज से समन्वित हो तो वैसे पुरूष की जरूरत पड़ती है जो मजबूत तो हो लेकिन अपने भीतर एक लता की लचीलेपन को समेटे हुए हो। अगर कृष्ण ने कर्ण के लिए द्रौपदी को मना किया तो इसलिए मना नही किया की उसमें क्षात्र तेज नहीं था बल्कि इस लिए मना किया क्योंकि कर्ण में तेज इतना ज्यादा था जहाँ सोम नहीं रह गया था। अर्जुन ने नियति के इस मुकाम पर खड़ा होकर तेज को अपनाने के लिए स्त्री की कला  (Feminine Art) का हीं सहारा लिया। दाहिने हाथ की अंगुलियों के मुकाबले में बाँये हाथ की अंगुलियों में कोमलता कहीं ज्यादा होती है। दाहिने हाथ से तीर को अगर तेजी से छोड़ा जाए तो तीर सीधा शक्ति से निकलता है लेकिन अगर अंगुलियों की कोमलता का इस्तेमाल कर अगर प्रत्यंचा को छूती हुए आहिस्ता छोड़ा जाए तो तीर घूर्णण करते हुए अपने भीतर शक्ति के साथ समय को भी समेटे हुए ल्क्ष्य पर आगे बढ़ता है। पांचाली के लिए कोमलता को ही अपने भीतर के तेज का फलक बना कर जब वह जल पर बने प्रतिबिंब के कई स्तर को देखा तो वह संशय की रेखा से घिर गया। लेकिन पानी में बने अपने प्रतिबिंब को देखकर उसे यह स्मरण हो आया वह स्वंय वेद के आचार्य द्रोण का प्रतिबिंब है। वह जैसे जैसे ध्यान में गया तो पानी में मछलियों की संख्या घट गई। मछ्ली का स्वरूप पांचाली का बनता गया। एक समय वह आया जब दूरी का प्रभाव चित्त से जाता रहा और काल का अंतराल भी खत्म हो गया। जब मछली भी रूप खोकर पांचाली भी भागवत निर्णय बन गई। तीर अर्जुन की अंगुलियों से छूट कर पांचाली का ल्क्ष्य भेद कर गई।
अब वहीं लक्ष्य भागवत निर्णय बन कर  सव्यसाची का गांगेय को गिराने के लिए संधान बन बैठा। अर्जुन ने दांये हाथ से धनुष को क्षैतिज कर बाँए हाथ की अंगुलियों से बाण को धनुष के सेज पर गांगेय को गिराने के लिए सजाया। गांगेय को गिराने के लिए उनके रथ के संतुलन को तोड़ना जरूरी था। सहदेव ने दो तीर धनुष पर रखा एक बीच प्रत्यंचा पर और एक थोड़ी उससे ऊंची जगह पर ताकि रथ का पहिया एक साथ दो बार झटके खाकर टूटे। अभिमन्यु ने अपने दाएँ पैर को जमीन से टिका कर अपने बाएँ पैर को ठेहुने से मोड़ कर अपने बांयी हाथा को सीधा नीचे कर धनुष को लंबवत के बजाए क्षैतिज कर भीष्म के पैरों पर प्रहार किया। ताकि बांयी पैर से तीर निकले और दायीं पैर को घायल कर संतुलन को बिगाड़े।

गांगेय जिस राजगद्दी की सुरक्षा कर रहे थे उसे बिना कृष्ण के ऐश्वर्य के चुनौती दिए बिना वह संभव नहीं था। तीन महारथियों के सम्मिलित लक्ष्य को देखकर गांगेय को भी आखिरी आक्रमण की घड़ी समझ आ गई। उसने भी बाँए हाथ को सीधा कर केहुनी से 90 के कोण पर रखा, हथेली को 90 के कोण पर वहाँ से प्रत्यंचा के नीचे से ले जाकर रखा। लक्ष्य को अम्बा के सामने रखा। तीर को अंगूठे और दो अंगुलियों के बजाए दो अंगुलियों प्रत्यंचा से ऊपर ला कर रखा। तीन जगह से लक्ष्य का संधान करने बाण निकले। सबसे पहले अभिमन्यु का तीर गांगेय के बाँए ठेहुने से लगा और वहाँ का लगा तीर निकल कर दाहिने जङ्घा में घुसा। उसी समय सहदेव के तीर ने चलते रथ के पहिए को दो बार तोड़ कर असंतुलित किया। अर्जुन के तीर ने हवा में घूर्णण करते हुए रिवर्स स्विंग करते हुए गांगेय के वक्ष को बीच से दाहिने तरह धकेल दिया। गांगेय ने लड़खड़ा कर गिरते हुए भी अपने आखिरी तीर को लक्ष्य पर संधान कर हीं दिया। गिरते हुए अपने हस्तिनापुर को असुरक्षित छोड़ने के अहसास ने उसके चेहरे को आँसुओं से भरना शुरू हीं किया था कि एक शांत, स्थिर, जड़ गौरवशालिनी सौंदर्य के प्रवाह की छवि कौंध गई और गांगेय शून्य और नि:शब्द बन कर रह गया।

तीर धनुष से उछला अम्बा के रथ को पार करते हुए हवा में स्विंग लेते हुए कृष्ण के मोरपंख को भेद गया। जितना प्रधान सेनापति के इस एकतीर ने पाण्डव पक्ष को श्रीहीन किया उतना न पहले हुआ न बाद को महाभारत युद्ध में हुआ। इस कला को अपना कर सबके मूल भगवान कृष्ण को प्रतीकात्मक पराजय देने के पीछे कृष्ण के प्रति हस्तिनापुर का वैर था या गांगेय का व्यक्तिगत समर्पण हीं इस आखिरी रूप में हुआ था यह या तो कृष्ण हीं स्वयं जान सकते हैं या गांगेय हीं जान सकता था। लेकिन गांगेय एक प्रतिमा की तरह निश्चेष्ट जरूर हो गया।

22.

आचार्य द्रोण के प्रधान सेनापतित्व ने अगर अभिमन्यु की बलि ले कर गांगेय को संज्ञा में लाने का काम किया तो वह पृष्ठभूमि भी रच दिया जिसमें गांगेय के सामने हीं अम्बा के तीसरे जन्म की नृशंस हत्या हो गई। गांगेय की हीं तरह आचार्य द्रोण ने पाँच पाण्डवों की वध करने से इंकार कर दिया। दुर्योधन युद्ध के लंबा खींचते जाने से अधीर होता जा रहा था। बारहवें दिन दिन के युद्ध में आचार्य द्रोण ने युधिष्ठिर को बंदी बनाने की योजना तैयार की जिसके बाद पाण्डवों को युद्ध समाप्त करना पड़ता। अर्जुन नारायणी सेना के संहार के लिए व्यूह के मध्य में होकर दायीं तरफ बढ़ा। त्रिगर्त देश का राजा अर्जुन को दूर ले जाने में लगा हुआ था। व्यूह से आचार्य द्रोण मध्य में खड़े थे और वो पाण्डवों के बाँयी तरफ से आकर युधिष्ठिर को बंदी बनाना चाहते थे। जिस तरह द्रोण अर्जुन को दायीं तरफ भेज कर आगे से युधिष्ठिर की बायीं ओर जगह बनाने में लगे उसने अभिमन्यु को चौकन्ना बना दिया और अभिमन्यु भी व्यूह के मध्य से सीधा बाँयी ओर बढ़कर द्रोण के सामने आ गया। द्रोण को रूक कर सीधे आगे बढ़ने का हीं रास्ता बचा। लेकिन अभिमन्यु ने खतरे को उठाते हुए बाँयी ओर के काफी आगे आ गया। वह युधिष्ठिर के दायीं ओर की रक्षा तो नहीं कर सकता था परंतु अभिमन्यु के अकेले होने के बावजूद वह पार्श्व सुरक्षित हो गया था। वह द्रोण को वहीं से कौरव सेना की प्रगति को रोके हुए था। इस युद्धनीति का उसे लाभ भी मिला। जब द्रोण दाहिने ओर से आगे बढ़ा तो सुरक्षित समय पर अर्जुन के मध्य की तरफ बढ़ते हीं अर्जुन के बाणों की सुरक्षा ने द्रोण को असफल भी बना दिया।

 

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