भावानुवाद - नरेन्द्र चौधरी
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यूसूफ अल-फाख़री की आयु तब तीस वर्ष की थी, जब उन्होंने संसार को त्याग दिया और उत्तरी लेबनान में वह कदेसा की घाटी के समीप एक एकांत आश्रम में रहने लगे। आपपास के देहातों में यूसुफ के बारे में तरह-तरह की किवदन्तियां सुनने में आती थीं। कइयों का कहना था कि वे एक धनी-मानी परिवार के थे और किसी स्त्री से प्रेम करने लगे थे, जिसने उनके साथ विश्वासघात किया। अत: (जीवन से) निराश हो उन्होंने एकान्तवास ग्रहण कर लिया। कुछ लोगों का कहना था कि वे एक कवि थे और कोलाहलपूर्ण नगर को त्यागकर वे इस आश्रम में इसलिए रहने लगे कि यहां (एकान्त में) अपने विचारों को संकलित कर सकें और अपनी ईश्वरीय प्रेरणाओं को छन्दोबद्ध कर सकें। परन्तु कइयों का यह विश्वास था कि वे एक रहस्यमय व्यक्ति थे और उन्हें अध्यात्म में ही संतोष मिलता था, यद्यपि अधिकांश लोगों क यह मत था कि वे पागल थे।
जहां तक मेरा सम्बन्ध है, इस मनुष्य के बारे में मैं किसी निश्चय पर न पहुंच पाया, क्योंकि मैं जानता था कि उसके हृदय में कोई गहरा रहस्य छिपा है, जिसक ज्ञान कल्पना-मात्र से प्राप्त नहीं किया जा सकता। एक अरसे से मैं इस अनोखे मनुष्य से भेटं करने की सोच रहा था। मैंने अनेक प्रकार से इनसे मित्रता स्थापित करने का प्रयास किया; इसलिए कि मैं इनकी वास्तविकता को जान सकूं और यह पूछकर कि इनके जीवन का क्या ध्येय है, इनकी कहानी को जान लूं। किन्तु मेरे सभी प्रयास विफल रहे। जब मैं प्रथम बार उनसे मिलने गया तो वे लेबनान के पवित्र देवदारों के जंगल में घूस रहे थे। मैंने उन्हें चुने हुए शब्दों की सुन्दरतम भाषा में उनका अभिवादन किया, किन्तु उन्होंने उत्तर में जरा-सा सिर झुकाया और लम्बे डग भरते हुए आगे निकल गये।
दूसरी बार मैंने उन्हें आश्रम के एक छोटे-से अंगूरों के बगीचे के बीच में खड़े देखा। मैं फिर उनके निकट गया। और इस प्रकार कहते हुए उनका अभिनन्दन किया, "देहात के लोग कहा करते हैं कि इस आश्रम का निर्माण चौदहवीं में सीरिया-निवासियों के एक सम्प्रदाय ने किया था। क्या आप इसके इतिहास के बारे में कुछ जानते है?"
उन्होंने उदासीन भाव में उत्तर दिया, "मैं नहीं जानता कि उस आश्रम को किसने बनवाया और सन ही मुझे यह जानने की परवा है।" उन्होंने मेरी ओर से पीठ फेर जली और बोले, "तुम अपने बाप-दादों से क्यों नहीं पूछते, जो मुझसे अधिक बूढ़े हैं और जो इन घाटियों के इतिहास से मुझसे कहीं अधिक परिचित हैं?"
अपने प्रयास को बिल्कुल ही व्यर्थ समझकर मैं लौट आया।
इस प्रकार दो वर्ष व्यतीत हो गये। उस निराले मनुष्य की झक्की जिन्दगी ने मेरे मस्तिष्क में घर कर लिया और वह बार-बार मेरे सपनों में आ-आकर मुझे तंग करने लगा।
शरद् ऋतु में एक दिन, जब मैं यूसुफ-अल फ़ाखरीके आश्रम के पास की पहाड़ियों तथा घाटियों में घूमता फिर रहा था, अचानक एक प्रचण्ड आंधी और मूसलाधार वर्षा ने मुझे घेर लिया और तूफान मुझे एक ऐसी नाव की भांति इधर-से-उधर भटकाने लगा, जिसकी पतवार टूट गई हो और जिसका मस्तूल सागर के तूफानी झकोरों से छिन्न-भिन्न हो गया हो। बड़ी कठिनाई से मैंने अपने पैरों को यूसुफ साहब के आश्रम की ओर बढ़ाया और मन-ही-मन सोचने लगा, "बड़े दिनों की प्रतीक्षा के बाद यह एक अवसर हाथ लगा है। मेरे वहां घुसने के लिए तूफान एक बहाना बन जायगा और अपने भीगे हुए वस्त्रों के कारण मैं वहां काफी समय तक टिक सकूंगा।"
जब मैं आश्रम में पहुंचा तो मेरी स्थिति अत्यन्त ही दयनीय हो गई थी। मैंने आश्रम के द्वार को खटखटाया तो जिनकी खोज में मैं था, उन्होंने ही द्वार खोला। अपने एक हाथ में वह ऐसे मरणसन्न पक्षी को लिये हुए थे, जिसके सिर में चोट आई थी और पंख कट गये थे। मैंने यह कहकर उनकी अभ्यर्थना की,"कृपया मेरे इस बिना आज्ञा के प्रवेश और कष्ट के लिए क्षमा करें। अपने घर से बहुत दूर तूफान में मैं बुरी तरह फंस गया था।"
त्यौरी चढ़ाकर उन्होंने कहा, " इस निर्जन वन में अनेक गुफांए हैं, जहां तुम शरण ले सकते थे।" किन्तु जो भी हो, उन्होंने द्वार बन्द नहीं किया। मेरे हृदय की धड़कन पहले से ही बढ़ने लगी; क्योंकि शीघ्र ही मेरी सबसे बड़ी तमन्ना पूर्ण होने जा रही थी। उन्होंने पक्षी के सिर को अत्यन्त ही सावधानी से सहलाना शुरु किया और इस प्रकार अपने एक ऐसे गुण को प्रकट करने लगे, जो मुझे अति प्रिय था। मुझे इस मनुष्य के दो प्रकार के परस्पर विरोधी गुण-दया और निष्ठुरता-को एक साथ देखकर आश्चर्य हो रहा था। हमें ज्ञात हुआ कि हम गहरी निस्तब्धता के बीच खड़े है। उन्हें मेरी उपस्थिति पर क्रोध आ रहा था और मैं वहां ठहरे रहना चाहता था।
ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने मेरे विचारों को भांप लिया, क्योंकि उन्होंने ऊपर (आकाश) की ओर देखा और कहा, "तूफान साफ है और खट्टा (बुरे मनुष्य का) मांस खाना नहीं चाहता। तुम इससे बचना क्यों चाहते हो?"
कुछ व्यंग्य से मैंने कहा, "हो सकता है, तूफान खट्टी और नमकीन वस्तुएं न खाना चाहता हो, किन्तु प्रत्येक पदार्थ को वह ठण्ड़ा तथा शक्तिहीन बना देने पर तुला है और निस्संदेह यह वह मुझे फिर से पकड़ लेगा तो अपने में समाये बिना न छोड़ेगा।"
उनके चेहरे का भाव यह कहते-कहते अत्यन्त कठोर हो गया, "यदि तूफान ने तुम्हें निगल लिया होता तो तुम्हारा बड़ा सम्मान किया होता, जिसके तुम योग्य भी नहीं हो।"
मैंने स्वीकारते हुए कहा, "हां श्रीमान ! मैं इसीलिए तूफान से छिप गया कि कहीं ऐसा सम्मान न पा जाऊं, जिसके कि मैं योग्य ही नहीं हूं।"
Bihar became the first state in India to have separate web page for every city and village in the state on its website www.brandbihar.com (Now www.brandbharat.com)
See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217