Home Page

States of India

Hindi Literature

Religion in India

Articles

Art and Culture

 

तूफान खलील जिब्रान

तूफान खलील जिब्रान

भावानुवाद - नरेन्द्र चौधरी

पेज 1
पेज 2
पेज 3
पेज 4
पेज 5
पेज 6

पेज 4

यूसुफ साहब ने तब एक लम्बी सांस ली, मानों किसी भारी बोझ से अब मुक्ति पा गये हों। उनके नेत्र अनोखी तथा जादूभरी किरणों से सतेज हो उठे और उनके उज्जवल चेहरे पर गर्व, संकल्प संतोष झलकने लगा।   

कुछ मिनट ऐसे ही गुजर गये। मैं उन्हें गौर से देखता रहा और जो मेरे लिए अभी तक अज्ञात था उस पर से आवतरण हटता तब मैंने उनसे कहा, "निस्संदेह आपने जो कुछ कहा, उसमें अधिकांश सही है; किंतु लक्षणो को देखकर सामाजिक रोगों का सही अनुमान लगाने से यह प्रमाणित हो गया है कि आप एक अच्छे चिकित्सक हैं मैं समझता हूं कि रोगी समाज को आज ऐसे चिकित्सक की अति आवश्यकता है, जो उसे रोग से मुक्त करे अथवा मृत्यु प्रदान करे। यह पीड़ित संसार सबसे दया की भीख चाहता है। क्या यह दयापूर्ण तथा न्यायोचित होगा कि आप एक पीड़ित रोगी को छोड़ जायं और उसे अपने उपकार से वंचित रहने दें?"

 वे कुछ सोचते हुए मेरी ओर एकटक देखने लगे और फिर निराश स्वर में बोले, "चिकित्सक सृष्टि के आरम्भ से ही मानव को उनकी अव्यवस्थाओं से मुक्त कराने की चेष्टाएं करते आ रहे हैं। कुछ चिकित्सकों ने चीरफाड़ का प्रयोग किया और कुछ ने औषधियों का: किन्तु महामारी बुरी तरह फैलती गई। मेरा तो यही  विचार है कि रोगी अगर अपनी मैली-कुचैली शैया पर ही पड़े रहने में संतुष्ट रहता और अपनी चिरकालीन व्याधि पर मनन-मात्र करता तो अच्छा होता! लेकिन इसके बदले होता क्या है? जो व्यक्ति भी रोगी मानव से मिलने आता है, अपने ऊपंरी लबादे के नीचे से हाथ निकालकर वह रोगी उसी आदमी को गर्दन से पकड़कर ऐसा धर दबाता है कि वह दम तोड़ देता है। हाय यह कैसा अभाग्य है! दुष्ट रोगी अपने चिकित्सक को ही मार डालता है- और फिर अपने नेत्र बन्द करके मन-ही-मन कहता है, ‘वह एक बड़ा चिकित्सक था।’ न, भाई न, संसार में कोई भी इस मनुष्यता को लाभ नहीं पहुंचा सकता। बीच बोनेवाला कितना भी प्रवीण तथा बुद्धिमान् क्यों न हो शीतकाल में कुछ भी नहीं उगा सकता !’’

किन्तु मैंने युक्ति दी "मनुष्यों का शीत कभी तो समाप्त होगा ही, फिर सुन्दर वसन्त आयेगा और तब अवश्य ही खेतों में फूल खिलेंगे और फिर से घाटियों में झरने वह निकलेगें।"

उनकी भकटी तन गई और कड़वे स्वर में उन्होंने कहा, "काश! ईश्वर ने मनुष्य का जीवन जो उसकी परिपूर्ण वृति हैं, वर्ष की भांति ऋतुओं में बांट दिया होता! क्या मनुष्यों का कोई भी गिरोह जो, ईश्चवर के सत्य और उसकी आत्मा पर  विश्वास रखकर जीवित है, इस भूखण्ड पर फिर से जन्म लेना चाहेगा? क्या कभी ऐसा समय आयेगा जब मनुष्य स्थिर होकर दिव्य चेतना की टिक सकेगा, जहां दिन के उजाले की उज्जवलता तथा रात्रि की शान्त निस्तब्ध्ता में वह खुश रह सके? क्या मेरा यह सपना कभी सत्य हो पायेगा? अथवा क्या यह सपना तभी सच्चा होगा जब यह धरती मनुष्य के मांस से ढ़क चुकी होगी और उके रक्त से भीग चुकी होगी?"

 यूसुफ साहब तब खड़े हो गये और उन्होने आकाश की ओर ऐसे हाथ उठाया, मानों किसी दूसरे संसार की ओर इशारा कर रहे हों और बोले, "नही हो सकता।इस संसार के लिए यह केवल एक सपना है। किंतु मैं अपने लिए इसकी खोज कर रहा हूं। और  जो मैं खोज रहा हूं। वही मेरे हृदय के कोने-कोने में, इन घाटियों में और इन पहाड़ो में व्याप्क है।" उन्होंने अपने उत्तेजित स्वर को और भी ऊंचा करके कहा, "वास्तक में मैं जानता हूं। वह तो मेरे अन्त: करण की चीत्कार है। मैं यहां रह रहा हूं, कितुं मेरे अस्तित्व की गहराइयों में भूख और प्यास भरी हुई है, और अपने हाथों द्वारा बनाये  तथा सजाये पात्रों में ही जीवन की मदिरा तथा रोटी लेकर खाने में मुझे आनंद मिलता तथा इसीलिए मैं मनुष्यों के निवास स्थान को छोड़कर यहां आया हूं और अंत तक यहीं रहूंगा।",

 वे उस कमरे में व्याकुलता से आगे पीछे घूमते रहे और मैं उनके कथन पर विचार करता रहा तथा समाज के गहरे घावों की व्याख्या का अध्ययन करता रहा।

तब मैंने यह कहकर ढंग से एक और चोट की, "मैं आपके विचारों तथा आपकी इच्छाओं का पूर्णत: आदर करता हूं और आपके एकान्तवास पर मैं श्रद्धा भी करता हूं। और ईर्ष्या भी। किन्तु आपके अपने से अलग करके अभागे राष्ट्र ने काफी नुकसान उठाया है; उसे एक ऐसे समझकर सुधाकर की आवश्यकता है, जो कठिनाइयों में उसकी सहायता कर सके और सुप्त चेतना को जगा सके।"

 उन्होंने धीमे-से अपना सिर हिलाकर कहा, "यह राष्ट्र भी दूसरे राष्ट्रों की तरह ही है, और यहां के लोग भी उन्हीं तत्वों से बने हैं, जिनसें शेष मानव। अंतर है तो मात्र बाह्य आकृतियों का, सो कोई अर्थ ही नहीं रखता। हमारे पूर्वीय राष्टों की वेदना सम्पूर्ण संसार की वेदना है। और जिसे तुम पाश्चात्य सभ्यता कहते हो वह और कुछ नहीं,उन अनेक दुखान्त भ्रामक आभासों का एक और रूप है।

 "पाखण्ड तो सदैव ही पाखण्ड रहेगा, चाहे उसकी उंगलियों को रंग दिया जाय तथा चमकदार बना दिया जाय। बचना कभी न बदलेगी चाहे उसका स्पर्श कितना भी कोमल तथा मधुर क्यों न हो जाय! असत्यता कभी भी सत्यता में परिणत नहीं की जा सकती, चाहे तुम उसे रेशमी कपड़े पहनकर महलों में ही क्यों न बिठा दो। और लालसा कभी संतोष नहीं बन सकती है। रही अनंत गुलामी, चाहे वह सिद्धातों की हो, रीति-रिवाजों की हो या इतिहास की हो सदैव गुलामी ही रहेगी, कितना ही वह  अपने चेहरे को रंग ले  और अपनी आवाज को बदल ले। गुलामी अपने डरावने रुप में गुलामी ही रहेगी, तुम चाहें उसे आजादी ही कहों।

"नहीं मेरे भाई, पश्चिम न तो पूर्व से जरा भी ऊंचा है और न जरा भी नीचा। दोनों में जो अंतर है वह शेर और शेर-बबर के अंतर से अधिक  नहीं है। समाज के बाह्य रुप के परे मैंने एक सर्वोचित और सम्पूर्ण विधान खोज निकाला है, जो सुख-दुख तथा अज्ञान सभी को एक समान बना देता है। वह विधान ने एक जाति का दूसरी से बढ़कर मानता है और न एक को उभारने के लिए दूसरे को गिराने का प्रयत्न करता है।"

पिछ्ला पेज
अगला पेज

National Record 2012

Most comprehensive state website
Bihar-in-limca-book-of-records

Bihar became the first state in India to have separate web page for every city and village in the state on its website www.brandbihar.com (Now www.brandbharat.com)

See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217