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तूफान खलील जिब्रान

तूफान खलील जिब्रान

भावानुवाद - नरेन्द्र चौधरी

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 इस चेष्टा में कि वे अपने  चेहरे पर की मुस्कान मुझसे छिपा सकें, उन्होंने अपना मुंह फेर लिया। तब वे अंगीठी के पास रखी हुई एक लकड़ी की बेंच की ओर बढ़े और मुझसे कहा कि मैं विश्राम करुं और अपने वस्त्रों को सूखा लूं। अपने उल्लास को मैं बड़ी कठिनाई से छिपा सका।

 मैंने उन्हें धन्यावाद दिया और स्थान ग्रहण किया। वे भी मेरे सामने ही एक बेंच पर, जो पत्थर को काटकर बनाई गई थी, बैठ गये। वे अपनी उंगलियों को एक मिट्टी के बरतन में, जिसमें एक प्रकार का तेल रखा हुआ था, बार-बार डुबोने लगे और उस पक्षी के सिर तथा पंखों पर मलने लगे।

बिना ऊपर को देखे ही बोले, "शक्तिशाली वायु ने इस पक्षी को जीवन-मृत्यु के बीच पत्थरों पर दे मारा था।",

 तुलना-सी करते हुए मैंने उत्तर दिया, "और भयानक तुफान ने इससे पहले कि मेरा सिर चकनाचूर हो जाय और मेरे पैर टूट जायं मुझे भटकाकर आपके द्वार पर भेज दिया।" गम्भीरतापूर्वक उन्होंने मेरी ओर देखा और बोले, "मेरी तो यही चाह है कि मनुष्य पक्षियों का स्वभाव अपनाये और तूफान मनुष्य के पैर तोड़ डाले; मनुष्य का झुकाव भय और कायरता की ओर है और जैसे ही वह अनुभव करता है कि तूफान जाग गया है, यह रेगते-रेंगते गुफाओं और खाइयों में घुस जाता है। अपने को छिपा लेता हैं।"

मेरा उद्देश्य था कि उनके स्वत: स्वीकृत एकान्तवास की कहानी जान लूं। इसीलिए मैंने उन्हें यह कहकर उत्तेजित किया, "हां ! पक्षी के पास ऐसा सम्मान और साहस है, जो मनुष्य के पास नहीं। मनुष्य विधान तथा  सामाजिक आचारों के साये में वास करता है, जो उसने अपने लिए स्वयं बनाये हैं: किन्तु पक्षी उसी स्वतन्त्र –शाश्वत विधान के अधीन रहते हैं, जिसके कारण पृथ्वी सूर्य के चारों ओर रास्ते पर निरन्तर घूमती रहती है।"

उनके नेत्र और चेहरा चमकने लगे, मानों मुझसे उन्होंने एक समझदार शिष्य को पा लिया हो। वे बोले, "अति सुन्दर ! यदि तुम्हे स्वयं अपने शब्दों पर विश्वास है तो तुम्हें सभ्यता और उसके दूषित विधान तथा अति प्राचीन परम्पराओं को तुरन्त ही त्याग देना चाहिए और पक्षियों की तरह ऐसे शून्य स्थान में रहना चाहिए, जहां आकाश और पृथ्वी के महान विधान के अतिरिक्त कुछ भी न हो।

"विश्वास रखना एक सुन्दर बात है; किन्तु उस विश्वास को प्रयोग में लाना साहस  का काम है। अनेक मनुष्य ऐसे हैं, जो सागर की गर्जन के समान चीखते रहते हैं, किन्तु उनका जीवन खोखला और प्रवाहहीन होता है जैसे कि सड़ती हुई दल-दल, और अनेक ऐसे हैं, जो अपने सिरों को पर्वत की चोटी से भी ऊपर उठाये चलते हैं, किन्तु उनकी आत्माएं कन्दराओं के अन्धकार में सोती पड़ी रहती हैं।"

 वे कांपते हुए अपनी जगह से उठे और पक्षी को खिड़की के ऊपर एक तह किये हुए कपड़े पर रख आये। तब उन्होंने कुछ सूखी लकड़ियां अंगीठी में डाल दीं। और बोले, "अपने जूतों को उतार दो  और अपने पैरों को सेंक लो, क्योंकि भीगे रहना आदमी के स्वास्थय के लिए हानिकारक है। तुम अपने वस्त्रों को ठीक से सूखा लो और आराम से बैठो।"

      यूसुफ साहब के इस निरन्तर आतिथ्य ने मेरी आशाओं को उभार दिया। मैं आग के और समीप खिसक गया और मेरे भीगे कुरते से पानी भाप बनकर उड़ने लगा। जब वह भूरे आकाश को निहारते हुए ड्योढ़ी पर खड़े रहे मेरा मस्तिष्क उनके आन्तरिक रहस्यों को खोजता दौड़ रहा था। मैंने एक अनजान की तरह उनसे पूछा, "क्या आप बहुत दिनों से यहां रह रहे है?"

 मेरी ओर देखे बिना ही उन्होंने शान्त स्वर में कहा, "मैं इस स्थान पर तब आया था, जब यह पृथ्वी निराकार तथा शून्य थी, जब इसके रहस्यों पर अन्धकार छाया हुआ था, और ईश्वर की आत्मा पानी की संतह पर तैरती थी।"

यह सूनकर मैं अवाक् रह गया। क्षुब्ध और अस्त-व्यस्त ज्ञान को समेटने का संघर्ष करते हुए मन-ही-मन मैं बोला, "कितने अजीब व्यक्ति हैं ये और कितना कठिन है इनके वास्तविकता को पाना ! किन्तु मुझे सावधानी के साथ, धीरे-धीरे और संतोष रखकर तबतक चोट करनी होगी, जबतक इनकी मूकता बातचीत में न बदल जाय और इनके विचित्रता समझ में न आ जाय!"

रात्रि अपनी अन्धकार की  चादर उन घाटियों पर फैला रही थी। मतवाला तूफान चिंघाड़ रहा था और वर्षा बढ़ती ही जा रही थीं। मैं सोचने लगा कि बाइबिल वाली बाढ़ चैतन्य को नष्ट करने और ईश्चर की धरती पर से मनुष्य की गंदगी को धोने के लिए फिर से आ रही है।।

 ऐसा प्रतीत होने लगा कि तत्वों की क्रान्ति ने यूसुफ साहब के हृदय में एक ऐसी शान्ति उत्पन्न की है, जो प्राय: स्वभाव पर अपना असर छोड़ जाती है और एकान्तता को प्रसन्नता से प्रतिबिम्बित कर जाती है। उन्होंने दो मोमबत्तियां सुलगायीं और तब मेरे सम्मुख शराब की एक सुराही और एक बड़ी तश्तरी में रोटी मक्खन, जैतून के फल,मधु और कुछ सूखे मेवे लाकर रक्खे। तब वह मेरे पास बैठ गये और खाने की थोड़ी मात्रा के लिए–उसकी सादगी के लिए नहीं- क्षमा मांग कर, उन्होंने मुझसे भोजन करने को कहा।

हम उस समझी–बूझी निस्तब्धता में हवा के विलाप तथा वर्षा के चीत्कार को सुनते हुए साथ-साथ भोजन करने लगे। साथ ही मैं उनके चेहने को घूरता रहा और उनके हृदय के रहस्यों को कुरेद-कुरेदकर निकालने का प्रयास करता रहा। उनके असाधारण अस्तित्व के सम्भव कारण को भी सोचता रहा। भोजन समाप्त करके उन्होंने अंगीठी पर से एक पीतल की केतली उठाई और उसमें से शुद्ध सुगन्धित कॉफी दो प्यालों में उड़ेल दी। तब उन्होंने एक छोटे-से लड़की के बक्स को खोला और ‘भाई’ शब्द से सम्बोधित कर, उसमे से एक सिगरेट भेंट की। कॉफी पीते हुए मैंने सिगरेट ले ली, किन्तु जो कुछ भी मेरी आंखे देख रही थी, उस पर मुझे विश्वास नहीं हो रहा था।

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