भावानुवाद - नरेन्द्र चौधरी
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मैंने विस्मय से कहा, "मनुष्यता का अभिमान झूठा है और उसमें जो कुछ भी है वह सभी निस्सार है।"
उन्होंने जल्दी से कहा, "हां, मनुष्यता एक मिथ्या अभिमान है और उसमें जो कुछ भी है, वह सभी मिथ्या है। आविष्कार तथा खोज तो मनुष्य अपने उस समय के मनोरंजन और आराम के लिए करता है, जब वह पूर्णतया थककर हार गया हो। देशीय दूरी को जीतना और समुद्रों पर विजय पाना ऐसा नश्चर फल है जो ने तो आत्मा को संतुष्ट कर सकता है, न हृदय का पोषण तथा उसका विकास ही; क्योंकि वह विजय नितान्त ही अप्राकृतिक है। जिन रचनाओं और सिद्धांतो को मनुष्य कला और ज्ञान कहकर पुकारता है, वे बंधन की उन कड़ियों और सुनहरी जंजीरो के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, जिन्हें मनुष्य अपने साथ घसीटता चलता है और जिनके चमचमाते प्रतिबिम्बों तथा झनझनाहट से वह प्रसन्न होता रहता है। वास्तव में वे मजबूत पिंजरे मनुष्य ने शताब्दियों पहले बनाना आरंभ किया था कितुं तब वह यह ने जानता था कि उन्हें वह अन्दर की तरफ से बना रहा और शीघ्र ही वह स्वयं बंदी बन जायेगा-हमेशा-हमेशा के लिए। हां-हां, मनुष्य के कर्म निष्फल हैं और उसके उद्देश्य निरर्थक हैं और इस पृथ्वी पर सभी कुछ निस्सार है।"
वे जरा से रूके और फिर धीरे –से बोलते गये, "और जीवन की इन समस्त निस्सारताओं में केवल एक ही वस्तु है, जिससे आत्म प्रेम करती हैं जिसे वह चाहती है। एक और अकेली देदीप्यमान वस्तु !"
मैंने कंपित स्वर में पूछा, "वह क्या ?" क्षण भर उन्होंने मुझे देखा और तब अपनी आंखे मीच लीं। अपने हाथ छाती पर रखे। उनका चेहरा तमतमाने लगा और विश्वसनीय तथा गंभीर आवाज में बोले, "वह है आत्मा की जागृति, वह है हृदय की आन्तरिक गहराइयों का उद्बोधन। वह सब पर छा जानेवाली एक महाप्रतापी शक्ति है, जो मनुष्य-चेतना में कभी भी प्रबुद्ध होती है और उसकी आंखे खोल देती है। तब उस महान् संगीत की उज्ज्वल धारा के बीच, जिसे अनंत प्रकाश घेरे रहता है, वह जीवन दिखाई पड़ता है, जिससे लगा हुआ मनुष्य सुन्दरता के स्तम्भ के समान आकाश और पृथ्वी के बीच खड़ा रहता है।
"वह एक ऐसी ज्वाला है, जो आत्मा में अचानक सुलग उठती है और हृदय को तपाकर पवित्र बना देती है, पृथ्वी पर उतर आती है और विस्तृत आकाश में चलकर लगाने लगती है।
"वह एक दया है, जो मनुष्य के हृदय को आ घेरती है, ताकि उसकी प्रेरणा से मनुष्य उन सबको आवाक् बनाकर अमान्य कर दे, जो उसका विरोध करते है और जो उसके महान् अर्थ समझने में असमर्थ रहते हैं, उनके विरुद्ध वह शक्ति विद्रोह पैदा करती है।
"वह एक रहस्यमय हाथ हैस, जिसने मेरे नेत्रो के आवरण को तभी हटा दिया, जब मैं समाज का सदस्य बना हुआ अपने परिवार, मित्रों तथा हितैषियों के बीच रहा करता था।
"कई बार मैं विस्मत हुआ और मन-ही-मन कहता रहा, -‘क्या है यह सृष्टि और क्यों मैं उन लोगों से भिन्न हूं, जो मुझे देखते हैं? मैं उन्हें कैसे जानता हूं, उन्हें मैं कहां मिला और क्यों मैं उनके बीच रह रहा हूं? क्या मैं उन लोगों में एक अजनबी हूं। अथवा वे ही इस प्रकार अपरिचित है-ऐसे संसार के लिए जो दिव्य चेतना से निर्मित है और जिसका मुझे पर पूर्ण विश्चास है?"
अचानक वे चुप हो गये, जैसे कोई भूली बात स्मरण कर रहें हो, जिसे वह प्रकट नहीं करना चाहते। तब उन्होंने अपनी बांहें फैला दीं और फुसफूसाया, "आज से चार वर्ष पूर्व, जब मैंने संसार का त्याग किया, मेरे साथ यही तो हुआ था। इस निर्जन स्थान में मैं इसलिए आया कि जागृत चेतना में एक सकूं और सम्मनस्कता और सौग्य नीरवता के आनदं को भोग सकूं।"
गहन अंधकर की ओर घूरते हुए वे द्वार की ओर बढ़े, मानों तूफान से कुछ कहना चाहते हो, पर वे प्रकम्ति स्वर में बोले, "यह आत्मा के भीतर की जागृति है। जो इसे जानता हों, पर वे प्रकम्पित स्वर में बोले, "यह आत्मा के भीतर की जागृति है। जो इसे जानता है, वह इसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता, और जो नहीं जानता, वह अस्त्वि के विवश करनेवाले किंतु सुंदर रहस्यों के बारे में कभी ने सोच सकेगी।"
एक घंटा बीत गया, यूसुफ –अल फाख़री कमरे में एक कोने से दूसरे कोने तक लम्बे डग भरते घूम रहे थे। वे कभी-कभी रुककर तुफान के कारण अत्यधिक भूरे आकाश को ताकने लगते थे। मैं खामोश ही बना रहा और उनके एकांतवासी जीवन की दु:ख-सुख की मिली-जुली तान पर सोचता रहा।
कुछ देर बाद रात्रि होने पर वे मेरे पास आये और देर तक मेरे चेहरे को घूरते रहे, मानों उस मनुष्य के चित्र को अपने मानस-पट पर अंकिट कर लेना सोच हो, जिसकें सम्मुख उन्होंने अपने जीवन के गूढ रहस्यों का उद्धटन कर दिया हो। विचारो की व्याकुलता से मेरा मन भारी हो गया था। और तूफान की धुन्ध के कारण मेरी आंखं बोझिल हो चली थीं।
तब उन्होंने शांतिपूर्वक कहा, "मैं अब रात भर तुफान में घूमने जा रहा हूं,। ताकि प्रकृत के भावाभिव्यंजन की समीपता भांप सकूं। यह मेरा अभ्यास है, जिसका आनंद मैं अधिकतर शरद तथा शीत में लेता हूं। लो, यह थोड़ी मदिरा है और यह तम्बाकू। कृपा कर आज रात भर के लिए मेरा घर अपना ही समझो।"
उन्होंने अपने आपको एक काले लबादे से ढंक लिया और मुस्कराकर बोले, "मैं तुमसे प्रार्थना करता हूं कि सुबह जब तुम जाओं तो बिना आज्ञा के प्रवेश करनेवालों के लिए मेरे द्वार बन्द करते जाना: क्योंकि मेरा कार्यक्रम है कि मैं सारा दिन पवित्र देवदारो के बन में घूमते बिताऊंगा।" तब वे द्वार की ओर बढ़े और एक लम्बी छड़ी साथ लेकर बोले, "यदि तूफान फिर कभी तुम्हें अचानक इस जगह के आपपास घूमते हुए आ घेरे, तो इस आश्रम में आश्रय लेने में संकोच न करना। मुझे आशा है कि अब तुम तूफान से प्रेम करना सीखोगे, भयभीत होना नही! सलाम, मेरे भाई!"
Bihar became the first state in India to have separate web page for every city and village in the state on its website www.brandbihar.com (Now www.brandbharat.com)
See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217