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लियो टाल्स्टाय कितनी जमीन ?

लियो टाल्स्टाय कितनी जमीन ?

भावानुवाद - जैनेन्द्र कुमार

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सब जरुरी बातें मालूम करे दीना जाड़ों से पहले-पहल घर लौट आया। आकर देश-छोड़ने की बात सोचने लगा। नफे के साथ उसने सब जमीन बेच डाली। घर-मकान, मवेशी-डंगर सबकी नकदी बना ली और पंचायत से इस्तीफा दे दिया और सारे कुनबे को साथ ले सतलज-पार के लिए रवाना हो गया।

     दीना परिवार के साथ उस जगह पहुंच गया। जाते ही एक बड़े गांव की पंचायत में शामिल होने की अर्जी दी। पंचों की उसने खूब खातिर की और दावतें दीं। जमीन का पट्टा उसे सहज मिल गया। मिली-जुली जमीन में से उसे और उसके बाल-बच्चों के इस्तेमाल के लिए पांच हिस्से यानी सौ एकड़ जमीन उसको दे दी गई। वह सब इकट्ठी नहीं थी, कई जगह टुकड़े थे। अलावा इसके पंचायती चरागाह भी उसके लिए खुला कर दिया गया। दीना ने जरुरी इमारतें अपने लिए खड़ी कीं और मवेशी खरीद लिये। शामलात जमीन में से ही अब उसको इतना मिल गया था कि पहले से तिगुनी, और जमीन उपजाऊ थी। वह पहले से कई गुना खुशहाल हो गया। उस पास चराई के लिए खुला मैदान-का-मैदान पड़ा था और जितने चाहे वह ढोर रख सकता था।

    पहले तो वहां जमने और मकान-वकान बनवाने का उसे रस रहा। वह अपने से खुश था और उसे गर्व मालूम  होता था। पर जब वह इस खुशहाली का आदी हो गया तो उसे लगने लगा कि यहां भी  जमीन काफी नहीं है; ओर होती तो अच्छा था। पहले साल उसने गेहूं बुवाया और जमीन ने अच्छी फसल दी। वह फिर गेहूं ही बोते जाना चाहता था, पर उसे लिए और पड़ती जमीन काफी न थी। जो एक बार फसल दे चुकती थी, वह उसे तरफ एक साथ दोबारा गेहूं नहीं देती थी। एक या दो साल उससे गेहूं ले सकते थे, फिर जरुरी होता था कि धरती को आराम दिया जाय। बहुत लोग ऐसी जमीन चाहनेवाले थे, लेकिन सबके लिए आती कहां से? इससे बदाबदी और खींचातानी होती थी। जो संपन्न थे, वे गेहूं उगाने के लिए जमीन चाहते थे। जो गरीब थे, वे अपनी जमीन से जैसे-तैसे पैसा वसूल करना चाहते थे, ताकि टैक्स वगैरा अदा कर सकें। दीना और गेहूं बोना चाहता था। इसलिए एक साल के लिए किराये पर  उसने और जमीन ले ली। खूब गेहूं बोया और फसल भी खूब हुई। लेकिन जमीन गांव से दूर पड़ती थी और गल्ला मीलों दूर से गाड़ी में भर-भरकर लाना होता था। कुछ दिनों बाद दीना ने देखा कि कुछ बड़े-बड़े लोग अलग फाम्र डाल कर रहते हैं और वह खूब पैसा कमा रहे हैं। उसने सोचा कि आगर मैं इकट्ठी कायमी जमीन ले लूं और वहीं घर बसाकर रहूं तो बात ही दूसरी हो जाय। इस तरह इकट्ठी और कायमी जमीन खरीदने का सवाल बार-बार उसके मन में उठने लगा।

     तीन साल इस तरह निकल गये। दीना जमीन किराये पर लेता और गेहूं बोता। मौसम ठीक गये, काश्त अच्छी हुई और  उस पास माल जमा होने लगा। वह इसी तरह संतोष से बढ़ता जा सकता था, लेकिन हर साल और लोगों से जमीन किराये पर लेने और उसके लिए कोशिश और सिरदर्दी करने के काम से वह थक गया था। जहां जमीन अच्छी होती, वहीं लेने वाले दौड़ पड़ते। इससे बहुत चौकस-चौकत्रा और होशियार न रहा जाता तो जमीन मिलना असंभव था। यह एक परेशानी की बात थी। तिसपर तीसरे साल ऐसा हुआ कि दीना ने एक महाजन के साझे में कुछ काश्तकारों से एक जमीन किराये में ली। जमीन गोड़ कर तैयार हो चुकी थी कि कुछ आपस में तनातनी हो गई और किसान लोग झगड़ा लेकर अदालत पहुंचे। अदालते से फिर मामला बिगड़ गया और की-कराई मेहनत बेकार गई।

     दीना ने सोचा कि अगर कहीं जमीन मेरी कायमी मिल्कियत की होती तो मैं आजाद होता और क्यों यह पचड़ा बनता और बखेड़ बढ़ता? उस दिन से वह जमीन के लिए निगाह रखने लगा। आखिर एक किसान मिला, जिसने एक हजार जमीन खरीदी थी, लेकिन पीछे उसकी हालत संभल न सकी। अब मुसीबत में पड़कर वह उसे सस्ती देने को तैयार था। दीना ने बात उससे चलाई और सौदा करना शुरु किया। आदमी मुसीबत में था, इससे दीना  भाव-दर में कमी करने लगा। आखिर कीमत एक हजार रुपये तय पाई। कुछ नगद दे दिया जाय, बाकी फिर। सौदा पक्का हो गया था कि एक सौदागर अपने घोड़े के दाने-पानी के लिए उसे घर के आगे ठहरा। उससे दीना की बातचीत जो हुई तो सौदागर ने कहा कि मैं नर्मदा नदी के उस पार से चला आ रहा हूं। वहां १५०० एकड़ उम्दा जमीन कुल पांच सौ रुपये में मैंने खरीदी थी। सुनकर दीना ने उससे और सवाल पूछे। सौदागर ने कहा - ‘‘बात यह है कि अफसर-चौधरी से मेल-मुलाकात करने का हुनर चाहिए। सौ से ज्यादा रुपये तो मैंने रेशमी कपड़े और गलीचे देने में खर्च किये होंगे। फिर शराब, फल-मेवों की डालियां, चाय-सेट वगैरा के उपहार अलग। नतीजा यह कि फी एकड़ मुझे जमीन  आनों के भाव पड़ गई।’’कहकर सौदागर ने अपने दस्तावेज सब दीना के सामने कर दिये।

फिर कहा, ‘‘जमीन ऐन नदी के किनारे है और सारे-का-सारा किता इकट्ठा है। उपजाऊ इतना कि क्या पूछो।’’

दीना ने इस पर उत्सुकतापूर्वक सौदागर से सवाल-पर-सवाल किये। उसने बताया - ‘‘वहां इतनी जमीन है, इतनी कि तुम महीनों चलो तो पूरी न हो। वहां के लोग ऐसी सीधे हैं, जैसे भेड़ और जमीन समझो, मुफ्त के भाव ले सकते हो।’’

दीना ने सोचा, यह ठीक रहेगा। भला मैं अब हजार एकड़ के लिए हजार रुपया क्यों फंसाऊं? अगर वहां जाकर इतना रुपया जमीन में लगाऊं, तो यहां से कई गुनी ज्यादा जमीन मुझे पड़ जायगी।

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