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लियो टाल्स्टाय कितनी जमीन ?

लियो टाल्स्टाय कितनी जमीन ?

भावानुवाद - जैनेन्द्र कुमार

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दीना समझा नहीं। बोला, ‘‘दिन! दिन का हिसाब यह कैसा है? यह बताइये कितने एकड़?’’

    सरदार ने कहा, ‘‘यह सब गिनना-गिनाना हमसे नही होता। हम तो दिन कि हिसाब से बेचते हैं, जितनी जमीन एक दिन में पैदल चलकर तुम नाप डालो, वही तुम्हारी। और कीमत है ही दिनभर की एक हजार।’’

     दीना अचरज में पड़ गयां कहा, ‘‘एक दिन में तो बहुत-सी जमीन को घेरा जा सकता है।’’

     सरदार हंसा। बोला, ‘‘हां, क्यों नही। बस, वह सब तुम्हारी। लेनि एक शर्त है। अगर तुम उसी दिन, उसी जगह न आ गये, जहां से चले थे, तो कीमत जब्त समझी जायगी।’’

      ‘‘लेकिन मुझे पता कैसे चलेगा कि मैं इस जगह से चला था।’’

      ‘‘क्यों, हम सब साथ चलेंगे और जहां तुम ठहरने को कहोगे, ठहरे रहेंगे। उस जगह से शुरु करना और वहीं लौट आना। साथ फावड़ा ले लेना। जहां जरुरी सूमझा, निशान लगा दिया। हर मोड़ पर एक गड्ढा किया और उस पर घास को जरा ऊंचा चिन दिया। पीछे फिर हमलोग चलेंगे और हल से इस निशान से उस निशान तक हदबन्दी खींच देंगे। अब दिन भर में जितना चाहो, बडे-से-बड़े चक्कर तुम लगा सकते हो। पर सूरज छिपने से पहले जहां से चले थे, वहां आ पहुंचना। जितनी जमीन तुम इस तरह नाप लोगे, वह तुम्हारी हो जायगी।’’

    दीना खुश हुआ। तय हुआ कि अगले सवेरे ही चलना शुरु कर दिया जायगा। फिर कुछ गपशप हुई, खाना-पीना हुआ। ऐसे ही करते-कराते रात हो गई। दीना के लिए उन्होंने खूब आराम  का परों  का बिस्तर लगा दिया और वे लोग रातभर के लिए विदा हो गये। कह गये कि पौ फटने से पहले ही वे आ जायंगे, ताकि सूरज निकलने से पहले-पहले मुकाम पर पहुंच जाया जाय।

    दीना अपने परों के बिस्तरे पर लेटा तो रहा, पर उसे नींद ने आई। रह-रहकर वह जमीन के बारे में सोचने लगता था:

   ‘‘चलकर मैं कितनी जमीन नाप डालूं कुछ ठिकाना है! एक दिन में पैंतीस मील तो आसानी से कर ही लूंगा। दिन आजकल लंबे होते हैं और पैंतीस मील!—कितनी जमीन उसमें आ जायगी! उसमें से घटिया वाली तो बेच दूंगा या किराये पर उठा दूंगा, लेकिन जो चुनी हुई बढ़िया होगी वहां अपना फाम्र बनाऊंगा। दो दर्जन तो बैल फिलहाल काफी होंगे। दो आदमी भी रखने होंगे। कोई डेढ़ सौ एकड़ में तो काश्त करुंगा। बाकी चराई के लिए।’’

    दीना रातभर पड़ा जमीन-आसमान के कुलाबे मिलाता रहा। देर-रात कहीं थोड़ी नींद आई। आंख झपी होगी किसी के बाहर से खिलखिलाकर हंसने की आवाज उसके कानों में आई। अचरज हुआ कि यह कौन हो सकता है? उठकर बाहर आकर देखा कि कोल लोगों का वह सरदार ही बाहर बैठा जोर-जोर से हंस रहा है। हंसी के मारे अपना पेट पकड़ रक्खा है। पास जाकर दीना ने पूछना चाहा, ‘‘आप ऐसे हंस क्यों रहे हैं?’’ लेकिन अभी पूछ पाया नहीं था कि देखता क्या है कि वहां सरदार तो है नहीं, बल्कि वह सौदागर बैठा है, जो अभी कुछ दिन पहले उसे अपने देश में मिला था ओर जिसने इस जमीन की बात बताई थी। तब दीना उससे पूछने को हुआ कि यहां तुम कैसे हो और कब आये? लेकिन देखा तो वह सौदागर भी नहीं, बल्कि वही पुराना किसान है जिसने मुद्दत हुई तब सतलज-पार की जमीन का पता दिया था। लेकिन फिर जो देखता है तो वह किसान भी नहीं है, बल्कि खुद शैतान है, जिसके खुर हैं और सींग है। वही वहां बैठा ठट्टा मारकर हंस रहा है। सामने उसके एक आदमी पड़ा हुआ है—नंगे पैर, बदन पर बस एक कुर्त्ता-धोती। जमीन पर वह आदमी औंधे मुंह बेहाल पड़ा है। दीना ने सपने में ही ध्यान से देखा कि ऐसा पड़ा हुआ आदमी कौन है और कैसा? देखता क्या है कि वह आदमी दूसरा कोई नहीं, खुद दीना ही है और उसकी जान निकल चुकी है। यह देखकर मारे डर के वह घबरा गया। इतने में उसी आंख खुल गई।

    उठकर सोचा कि सपने में आदमी जाने क्या-क्या वाहियात बातें देख जाता है। अंह्! यह सोचकर मुंह मोउ़ दरवाजे के बाहर झांककर जो देखा तो सवेरा होनेवाला था। सोचा, समय हो गया। उन्हें अब जगा देना चाहिए। चलने में देर ठीक नहीं।

    वह खड़ा हो गया और गाड़ी में सोते हुए अपने आदमी को जगाया। कहा कि गाड़ी तैयार करो। खुद कोल लोगों को बुलाने चल दिया। जाकर कहा, ‘‘सवेरा हो गया है। जमीन नापने चल पड़ना चाहिए।’’ कोल लोग सब उठे और इकट्ठे हुए। सरदार भी आ गये। चलने से पहले उन्होंने चाय की तैयारी की और दीना को चाय के लिए पूछा। लेकिन चाय में देर होने का खयाल कर उसने कहा, ‘‘अगर जाना है तो हमको चल देना चाहिए। वक्त बहुत हो गया।’’

    कोल तैयार हुए और सब चल पड़े। कुछ घोड़े पर, कुछ गाड़ी में। दीना नौकर के साथ अपनी छोटी बहली में सवार था। फावड़ा उसने साथ रख लिया था। खुले मैदान में जब पहुंचे, तड़का फूट ही रहा था। पास एक ऊंची टेकड़ी थी, पार खुला बिछा मैदान। टेकड़ी पर पहुंचकर गाड़ी-घोड़ों से सब उतर आये और एक जगह जमा हुए। सरदार ने फिर आगे जाने कितनी दूर तक फैले मैदान की तरफ हाथ उठाकर दीना से कहा कि देखते हो, जहांतक यह सब, आंख जाती है वहांतक, हमलोगों की जमीन है। उसमें जितनी तुम चाहों, ले लो।

   दीना की आंखें चमक उठीं। धरती एकदम अछूती पड़ी थी। हथेली की तरह हमवार और मुलायम। काली ऐसी कि बिनौला। और जहां कहीं जरा निचान था, वहां छाती-छाती जितनी तरह-तरह की हरियाली छाई थी।               

सरदार ने अपने सिर की रोएंदार टोपी उतारी और धरती पर रख दी। कहा ‘‘यह निशान रहा। यहां से चलो और यहां आ जाओ। जितनी जमीन चल लोगे, वहीं तुम्हारी।’’

 

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