भावानुवाद - जैनेन्द्र कुमार
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दीना ने भी रुपये निकाले और टोपी पर निगकर रख दिये। फिर उसने पहना हुआ अपना कोट उतार डाला और धोती को कस लिया। अंगोछे में रोटी रक्खी, आस्तीनों चढ़ाई, पानी का बन्दोबस्त किया, आदमी से फावड़ा लिया, और चलने को तैयार खड़ा हो गया। कुछ क्षण सोचता रह गया कि किस तरफ को चलना बेहतर होगा। सभी तरफ का लालच था।
उसने तय किया कि आगे देखा जायगा। पहले तो सामने सूरज की तरफ ही चला चलूं। एक बार पूरब की ओर मुंह करके खड़ा हो गया, अंगड़ाई लेकर बदन की सुस्ती हटाई और धरती के किनारे सूरज के मुंह चमकाने का इंतजार करने लगा।
सोचने लगा कि मुझे वक्त नहीं खोना चाहिए और ठंड-ठंड में रास्ता अच्छा पार हो सकता है। सूरज की पहली किरण का उनकी ओर आना था कि दीना, कंधे पर फावड़ा संभाल, खुले मैदान में कदम बढ़ाकर चल दिया।
शुरु में वह न धीमे चला, न तेज। हजार-एक गज चलने पर वह ठहरा। वहां एक गड्ढा किया और घास ऊंची चिन दी कि आसानी से दीख सके। फिर आगे बढ़ा। उसे बदने में फुर्ती आ गई। उसने चाल तेज कर दी। कुछ देर बाद दूसरा गड्ढा खोदा।
अब पीछे मुड़कर देखा। सूरज की धूप में टेकड़ी साफ दीखती थी। उस पर आदमी खड़े थे और गाड़ी के पहियों के आरे तक चमकते दीखते थे। अंदाजन तीन मील तो वह आ गया होगा। धूप में ताप आता जाता था। कुर्ते पर से बास्कट उतारकर उसने कंधे पर डाल ली और फिर चल पड़ा। अब खासी गर्मी होने लगी। उसने सूरज की तरफ देखा। वक्त हो गया था कि कुछ खाने-पीने की भी सोची जाती।
‘‘एक पहर तो बीत गया। लेकिन दिन में चार पहर होते हैं। अंह्, अभी जल्दी है। लेकिन जूते उतार डालूं।’’ यह सोच उसने जूते उतारकर अपनी धोती में खोंस लिये और बढ़ चला। अब चलना आसान था।
सोचा, ‘‘अभी तीन-एक मील तो और भी चला चलूं। तब दूसरी दिशा लूंगा। कैसी उमदा जगह ह। इसे हाथ से जाने देना हिमाकत है; लेकिन क्या अजब बात है कि जितना आगे बढ़ो, उतनी जमीन एक-से-एक बढ़कर मिलती है।’’
कुछ देर वह सीधा बढ़ा चला। फिर पीछे मुड़कर देखा तो टेकड़ी मुश्किल से दीख पड़ती थी और उस पर के आदमी रेंगती चींटी-से मालूम होते थे और वहां धूप में जाने क्या कुछ चलता हुआ-सा दीख पड़ता था।
दीना ने सोचा, ‘‘ओह, मैं इधर काफी बढ़ आया हूं। अब लौटना चाहिए।’’ पसीना बेहद आ रहा था और प्यास भी लग आई थी।
यहां ठहरकर उसने गड्ढा किया, ऊपर घास को ढेर चिन दिया। उसके बाद पानी पीकर सीधा बाई। तरफ मुड़ गया। चलता चला गया, चलता चला गया। घास ऊंची थी और गरमी बढ़ रही थी। वह थकने लगा। उसने सूरज की तरफ देखा। सिर पर दोपहर हो आई थी।
सोचा, अब जरा आराम कर लेना चाहिए। वह बैठ गया। रोटी निकालकर खाई और कुछ पानी पिया। लेटा नहीं कि कहीं नींद न आ जाय। इस तरह कुछ देर बैठ, फिर आगे बढ़ चला।
पहले तो चलना आसान हुआ। खाने से उसमें दम आ गया था। लेकिन गरमी तीखी हो चली और आंखों में उसके ऊंघ-सी आने लगी। तो भी वह चलता ही चला गया। सोचा कि तकलीफ घड़ी-दो-घड़ी की है, आराम जिंदगी भर का हो जायगा।
इस तरह भी उसने काफी लम्बी राह नापी। वह बाईं तरफ मुड़ने वाला ही था कि आगे जमीन उपजाऊ दिखाई दी। उसने सोचा कि इस टुकड़े को छोड़ना तो मूर्खता होगी। यहां सनी की बाड़ी ऐसी उगेगी कि क्या कहना! यह सोच उसने उस टुकड़े को भी नाप डाला और पार आकर गड्ढे का निशान बना दिया। फिर दूसरी तरफ मुड़ा। जो टेकड़ी की तरफ देखा तो ताप के मारे हवा कांपती-सी मालूम हुई। उस कंपकंपी के धुंधकारे में से वह टेकड़ी की जगह मुश्किल से चीन्ह पड़ती थी।
दीना ने सोचा कि क्षेत्र की ये दो भुजाएं मैंने ज्यादा मैंने नाप डाली है। अब इधर कुछ कम ही रहने दूं। वह तेज कदमों से तीसरी तरफ बढ़ा। उसने सूरज को देखा। सूरज कोई दो-तिहाई। अपना चक्कर काट चुका था। मुकाम से अभी वह दस मील दूर था। उसने सोचा कि छोड़ा जाने भी दो। मेरी जमीन की एक बाजू छोटी रह जायगी तो छोटी सही। लेकिन अब सीधी लकीर में मुझे वापस चलना चाहिए। जो ऐसे कहीं दूर निकल गया। तो बाजी गई। अरे, इतनी ही जमीन क्या थोड़ी है!
यह सोच दीना ने वहां तीसरे गड्ढे का निशान डाल दिया और टेकड़ी की तरफ मुंह कर ठीक उसी सीध में चल दिया।
नाक की सीध बांधकर सवह टेकड़ी की तरफ चला। लेकिन अब चलते मुश्किल होती थी। धूम उसका सत ले चुकी थी। नंगे पैर जगह-जगह कट और छिल गये थे और टांगें जवाब दे रही थीं। जरा आराम करने का उसका जी हुआ, लेकिन यह कैसे हो सकता था? सूरज छिपने से पहले उसे वहां पहुंच जाना था। सूरज किसी की बाट देखता बैठा नहीं रहता! वह पल-पल नीचे ढल रहा था।
उसके मन में सोच होने लगा कि मुझसे बड़ी भूल हुई। मैंने इतने पैर पसारे क्यों? अगर कहीं वक्त तक न पहुंचा तो?
Bihar became the first state in India to have separate web page for every city and village in the state on its website www.brandbihar.com (Now www.brandbharat.com)
See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217