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हिन्दी के कवि

घनानन्द

जन्म: 1689 ईसवी (लगभग)

निधन: 1739 ईसवी (लगभग)

 

घनानन्द का परिचय

घनानन्द का जीवन-वृत्त

समय और नाम के विषय में विवाद

जन्म-तिथि

जन्म-स्थान

घनानन्द और सुजान

मुत्यु

कवित्त, सवैया

 

समय और नाम के विषय में विवाद

        घनानन्द कब हुए, कहाँ हुए, यह सब लिखने से पूर्व यह आवश्यक हो जाता है कि उनका असली नाम क्या था-यह जान लिया जाए। वास्तव में हिन्दी साहित्य में केवल एक ही घनानन्द नहीं हुए, इस नाम के अन्य कवि भी मिलते हैं। इसी से स्वच्छंद काव्यधारा के घनानन्द के नाम की प्रामाणिकता का प्रश्न हमारे सामने उपस्थित होता है। इस विषय में विद्वानों में बड़ा मतभेद है। घनानन्द, आनन्दघन और आनन्द-इन तीन नामों में विवाद है कि आलोच्य घनानन्द वास्तव में कौन-से हैं ?

 

        घनानन्द  के नामकरण पर यदि शोध किया जाए तो ज्ञात होगा कि विद्वानों की एक लंबी कड़ी है, जो इस विषय पर विभिन्न प्रकार से प्रकाश डालती है। वे विद्वान हैं - डॉ. ग्रियर्सन, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, श्री क्षितिमोहन सेन, डॉ. श्याममुंदर दास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी,  इत्यादि ।

डॉ.ग्रियर्सन ने ‘आनन्द’ को ही रीतिमुक्त काव्यधारा के कवि घनानन्द माना है। उनके मत में ‘घन’शब्द आनन्द के साथ नहीं, पर वे ‘आनन्द’ ही घनानन्द हैं । परंतु अत्याधुनिक शोध ने यह सिद्ध कर दिया है कि ‘आनन्द’ एक स्वतंत्र कवि थे, जिन्होंने ‘कोकमंजरी’ काव्य की रनचा की थी –

कायस्थ कुल आनन्द कवि

       वासी कोट हिसार।

कोककला इहिरुचि करन

जिन यह कियको विचार।।

 

        आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र के मत में भी ग्रियर्सन वाले ‘आनन्द’ घनानन्द नहीं हैं, क्योंकि दोनों के रचना-काल में लगभग चालीस वर्षों का अंतर है।

घनानन्द के नामकरण के संबंध में दूसरा मुख्य विवाद ‘आनन्दघन’ नाम को लेकर है। ‘आनन्दघन’ नाम के तीन व्यक्ति मिलते हैं-

1.        जैनधर्मी घन आनन्द

2.        वृंदावन के आनन्दघन

3.        नंदगाँव के आनन्दघन

        श्री क्षितिमोहन सेन ने नवंबर सन् 1938 में ‘वीणा’ में ‘जैनधर्मी आनन्दघन शीर्षक के एक लेख में वृंदावन के आनन्दघन और जैनधर्मी घन आनन्द-दोनों के ही व्यक्ति के नाम होने की संभावना प्रकट की है। श्रीमती ज्ञानदेवी त्रिवेदी ने भी दोनों को एक ही व्यक्ति माना है, किंतु आचार्य विश्वानाथ प्रसाद मिश्र ने अपनी पुस्तक ‘घनानन्द और आनन्दघन’ की भूमिका में इस विवाद को समाप्त करते हुए यह सिद्ध किया है कि जैनधर्मी घन आनन्द और वृंदावन के आनन्दघन दोनों एक व्यक्ति नहीं थे-भिन्न-भिन्न व्यक्ति थे। इस मत की पुष्टि उन्होंने इस तर्क के द्वारा की है कि दोनों व्यक्तियों के काव्य-रचना काल का समय एक नहीं और न ही उनके काव्य में कोई समानता ही है। मिश्र जी ने दोनों व्यक्तियों के काल में कम से कम सौ वर्ष का अंतर माना है। जैनधर्मी घन आनन्द का समय विक्रम की सत्रहवी शताब्दी का उत्तरार्द्ध है। इनकी रचनाओं में ‘प्रीति विमल’ सं. 1671, ‘समय सुंदर’ सं. 1672 तथा जिनराज सूरी सं. 1678 के ‘के जिनस्तवन’ की अन्क पंक्तियाँ मिलती हैं। श्री विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने जो सौ वर्ष का अंतर माना है, वह संभवतः इसी कारण है कि वृंदावनवासी ‘आनन्दघन’ का समय विक्रम की 18 वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध जनधर्मी  ‘घन आनन्द’  और वृंदावन के ‘आनन्दघन’ के पश्चात तीसरा नाम शेष रहता है और वह है -नंदगाँव के आनन्दघन। इनका समय श्री चैतन्य महाप्रभु का है अर्थात् यह महाप्रभु के समसामयिक कवि ठहरते हां, जिनकी सं. 1553 मेंमहाप्रभु से भेट भी हुई थी और इनके वंशज आज भी मथुरा के निकटवर्ती  ‘खरोट’ गाँव में मिलते हैं । रीतिमुक्त काव्यधारा के घनानन्द के समय में और नंदगाँव के आनन्दघन में लगभग दो सौ वर्ष का अंतर है। रीतिमुक्त घनानन्द का समय 18वीं शताब्दी है और नंदगाँव के आनन्दघन का समय 16वीं शताब्दी।

 

        आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रीतिमुक्त घनानन्द का समय सं. 1746 तक माना है। इस प्रकार आलोच्य घनानन्द वृंदावन के आनन्दघन हैं । शुक्ल जी के विचार में ये नादिरशाह के आक्रमण के समय मारे गए। श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी का मत भी इनसे मिलता है। लगता है, कवि का मूल नाम आनन्दघन ही रहा होगा, परंतु छंदात्मक लय-विधान इत्यादि के कारण ये स्वयं ही आनन्दघन से घनानन्द हो गए । हिंदी साहित्य में यह अपवाद नहीं, क्यों कि पुष्टिमार्ग के जहाज सूरदास के भी सूर, सूरजदास, सूरजश्याम और सूरज आदि नाम मिलते हैं ।

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